मध्यप्रदेश की भर्ती परीक्षाओं में लागू आरक्षण अधिनियम निष्प्रभावी है / Khula Khat by रावेंद्र पांडेय

मध्यप्रदेश में सभी भर्तियों की पद तालिका में आरक्षण अधिनियम 1994 लागू है। जो मध्यप्रदेश के विभाजन के पूर्व में बना था। इस अधिनियम को वर्ष 2000 में हुए मध्यप्रदेश के विभाजन के समय बदला जाना चाहिए था जो तत्कालीन सरकार ने नही किया। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट में 5 जजो के बेंच ने इंद्रा साहनी केस के सम्बंध में पुनः रिवाइज ऑर्डर जारी किया है कि 50% के जातिगत आरक्षण की सीमा को कभी भी लांघा नही सकता है।

नौकरी, आरक्षण और विकृत राजनीति :-

बीते 2 बर्ष से मध्यप्रदेश के युवा सरकारी नौकरियों की तलाश में दर-दर भटक रहें है इनकी अनुनय-विनय को सुनने वाला मध्यप्रदेश में कोई नही है। मध्यप्रदेश में बीते 2 वर्षों से सामान्य योग्यताधारी छात्रों के लिए किसी भी प्रकार की सरकारी भर्ती परीक्षा का नोटिफिकेशन तक जारी नही किया गया है। पीईबी द्वारा अंतिम भर्ती अधिसूचना 3 अगस्त 2018 को जेल विभाग में जेल प्रहरी एवम अन्य पदों में भर्ती होने के लिए जारी की गई थी। इसमें भी पदों की संख्या न्यूनतम ही थी। तब से आज तक मध्यप्रदेश के 10 वीं से पीएचडी तक के डिग्रीधारी युवा भर्तियों की प्रतीक्षा में ही अपने दिन रात व्यतीत रहे हैं। 

प्रदेश में वर्षो बाद नई नई सरकार बनी थी बेरोजगारों ने नई ऊर्जा से मुख्यमंत्री से लेकर गृहमंत्री तक सभी को भर्ती परीक्षा आयोजित किये जाने के लिए ज्ञापन सौंपा लेकिन हर बार एक ही जवाब मिला कि अभी भर्ती बोर्ड यानी पीईबी का नया नामकरण किया जाएगा उसके बाद सारी व्यवस्था बदलेगी फिर परीक्षा आयोजित की जाएगी हालांकि बीते समय कैबिनेट में 4 से 5 बार नामकरण के प्रस्ताव को हरी झंडी मिलने के बाद भी बोर्ड का नया नामकरण नही हो सका।

अबतक छात्रों का धैर्य जवाब दे चुका था तभी नई नवेली सरकार ने पुराना खेल खेला वो था 27% आरक्षण का पुराना दांव । हालांकि ये दांव उनके पुराने मुख्यमंत्री को वर्ष 2003 में ही पूर्व मुख्यमंत्री बना के मिस्टर बंटाधार की उपाधि से सुसज्जित कर चुका था। लेकिन नई सरकार का पूरा ध्यान सिर्फ सभी भर्तियों  को लटकाना था जिसके लिए ये भगीरथी प्रयास किया गया था। क्योंकि ओबीसी श्रेणी को 27% रिजर्वेशन देते ही आरक्षण की सीमा सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित 50% की  अधिकतम आरक्षण को पार की जा चुकी थी अब वर्टिकल रिजर्वेशन बढ़कर 63% हो चुका था नतीजतन इस गैर तार्किक आरक्षण को रद्द किए जाने के लिए जबलपुर स्थित उच्च न्यायालय में कई याचिकाएं लग गयी। 

तत्कालीन सरकार के चंगु मंगू इस सब घटनाक्रम को देख के मन ही मन अत्यंत प्रसन्न हो रहें थे और जब बात आती उच्च न्यायालय में पक्ष रखे जाने की तो अगली डेट मांग ली जाती। लेकिन ईश्वर के घर देर है अंधेर नही ,न्यायपालिका नौजवानों के  भविष्य के प्रति सजग थी और सरकार द्वारा अपना पक्ष रखने में की जा रही बेवजह की देरी को देखते हुए उच्च न्यायालय ने सरकार का पक्ष न रखे जाने के कारण इस बढ़े हुए रिजर्वेशन में रोक लगा दी। 

समय की लाठी एक बार फिर इन शोषणकारियो पर चली और सरकार अल्पकाल में ही अल्पमत में आके गिर गयी । अब प्रदेश  में जब नई सरकार बनी है तब पुराने पूर्वमुख्यमंत्री  आरक्षण के मुद्दे पर कोर्ट में मजबूती से पक्ष रखने के  लिए नए मुख्यमंत्री को पत्र लिख रहे है। और इस अतिमहत्वपूर्ण पत्र को सोशल मीडिया में प्रसारित भी किया जा रहा है क्योंकि जब जनता ने समय दिया काम करने का तब तो काम किया नही इन्होंने, अब आरक्षण के नाम पे ओछी राजनीति करके दुबारा मुख्यमंत्री बनने का सपना संजोये हैं।

पूरी कहानी का सार ये है कि जो जख्म दे रहा है वही मलहम भी बेच रहा है। नेताजी को वोट के लिए घर आने पर कायदे से बैठा के समझाइये । कि नौकरी नही तो वोट नही। 

20 जुलाई को सबसे ज्यादा पढ़े जा रहे समाचार

#buttons=(Ok, Go it!) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Check Now
Ok, Go it!