शिक्षा व स्वास्थ्य विभाग में कर्मचारियों के शोषण का तरीका, बदलते भर्ती नियम - EMPLOYEE NEWS

भोपाल
। मप्र में न्यायपालिका, पुलिस व राजस्व विभाग में तो भर्ती प्रक्रिया में स्थायित्व है। शोषण के लिए शिक्षा व स्वास्थ्य विभाग में भर्ती नियमों में लगातार बदलाव कर कर्मचारियों के शोषण का तरीका निकाला गया है। 

मप्र तृतीय वर्ग शासकीय कर्मचारी संघ के प्रांताध्यक्ष श्री प्रमोद तिवारी एवं प्रांतीय उपाध्यक्ष कन्हैयालाल लक्षकार ने संयुक्त प्रेस नोट में बताया कि न्यायपालिका, पुलिस व राजस्व विभाग में परिवीक्षा व प्रशिक्षण अवधि सिमित व स्थायी है। इसके उलट शिक्षा व स्वास्थ्य विभाग में परिवीक्षा व प्रशिक्षण अवधि में लगातार बदलाव कर आर्थिक शोषण का मार्ग प्रशस्त किया गया है। शिक्षा विभाग में पहली बार 1972 में भर्ती नियमों में बदलाव कर पांच वर्ष में अनिवार्य पदोन्नति को पलिता लगाया गया था। 

इसका दंश 1972-73 से लेकर 1994-1995 तक की अवधि में नियुक्त शिक्षकों को पूरे सेवाकाल में बगैर पदोन्नति के सेवानिवृत्त होने तक झेलना पड़ रहा है। 1972 से पूर्व नियुक्त शिक्षकों को स्नातक होने की तिथि से माननीय उच्च न्यायालय ने पांच-पांच वर्ष में अनिवार्य पदोन्नति का मार्ग प्रशस्त कर दिया। इसका लाभ ऐसे शिक्षकों को सेवानिवृत्ति पर काल्पनिक वेतनवृध्दि देते हुए संशोधित पीपीओ-जीपीओ जारी किये। इससे इन्हें तीन लाख रूपये से अधिक एरियर राशि प्राप्त हुई है। यह शिक्षा विभाग पर कलंक है कि "नियमों में बदलाव के बाद पूरे सेवाकाल में बगैर पदोन्नति के शिक्षकों को अपने मूल पद से सेवानिवृत्त होना पड़ रहा है।" वर्ष 1994-95 में शिक्षक संवर्ग को डाइंग केडर(मृत संवर्ग) घोषित कर स्थानीय प्रशासन के माध्यम से शिक्षकों की भर्ती शिक्षाकर्मी के रूप में प्रारंभ की गई। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि दोनों संवर्ग में खाई बनी रही व कार्यक्षमता प्रभावित हुई। तीन साल तक अत्यल्प मानदेय पर शोषण कर पुनः 1998 में इन्हें नियमित नियुक्ति दी गई। इसमें पुनः 2003 में बदलाव कर ठेका पद्धति से भर्ती कर शिक्षा व स्वास्थ्य विभाग में पैरामेडिकल स्टाफ के शोषण का तरीका अपनाया गया। 

शिक्षा विभाग में पंद्रह फीसदी मानदेय में वृद्धि कर तीन वर्ष में शिक्षाकर्मी के रूप में नियुक्ति मान्य की गई। लेकिन स्वास्थ्य विभाग में वर्षो से पैरामेडिकल स्टाफ को ठेका पद्धति (संविदा) पर रोक कर न्यूनतम मानदेय शोषण बदस्तूर जारी है। शिक्षा विभाग में 1994-95 से नियुक्त शिक्षाकर्मियों को पदनाम बदलकर वर्ष 2007-08 से अध्यापक संवर्ग नाम से नवाजा गया। नियमित शिक्षकों के समान सेवाशर्तो पर तर्क दिया जाता रहा है कि ये शासन के नहीं, स्थानीय निकाय के कर्मचारी है। इसमें सात वर्ष सेवाकाल पर पदोन्नति व नियमित शिक्षकों के समान क्रमोन्नति वेतनमान का प्रावधान किया गया, लेकिन 2006 से राज्य कर्मचारियों के समान छठे वेतनमान का लाभ एक दशक बाद 2016 में व सातवां वेतनमान व नवीन "शिक्षक संवर्ग" पदनाम ढाई वर्ष विलंब से जुलाई 2018 से देते हुए शिक्षा विभाग में मान्य किया गया। 

इसमें पांच वर्ष में पदोन्नति का प्रावधान रखा गया। विडम्बना देखिये 1995 में शिक्षाकर्मी के रूप में नियुक्त शिक्षकों को बड़ी सफाई से पुरानी पेंशन योजना व अन्य परिलाभों से वंचित कर दिया गया है। जबकि अंशदायी पेंशन योजना जनवरी 2005 से लागू है। वर्ष 1972 के बाद नियुक्त योग्यताधारी शिक्षक कर्मचारी  "पदनाम" की मांग करते-करते कुछ हजारों तक सिमट गये, जो लगातार सेवानिवृत होते-होते नगण्य हो रहे है।कुल मिलाकर शिक्षा व स्वास्थ्य विभाग में खुला शोषण शासन की गलत भर्ती प्रक्रिया के चलते बदस्तूर जारी हैं। 

हताश निराश शोषित कर्मचारी अपनी जायज मांगों पांचवें, छठे व सातवें केंद्रीय वेतनमान यथावत प्रासंगिक भत्तों एचआर सहित, पुरानी पेंशन योजना बहाली, कोरोना के नाम पर आर्थिक नुकसान वाले आदेशों को लेकर आंदोलन करने व न्यायालय के चक्कर लगाने को मजबूर है। सत्ता में रहते दोनों दलों ने अपने-अपने कार्यकाल में शोषण के नये कीर्तिमान स्थापित किये है जो बदस्तूर जारी है, यह "स्थायी कलंक है।"

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