कर्मचारी नेताओं की गुटबाजी ने मध्यप्रदेश में 'कर्मचारी' को कमजोर कर दिया / Khula Khat

कन्हैयालाल लक्षकार। किसी भी संगठन को बनाने जीवित रखने व सक्रिय रूप से चलाने के लिए मेहनत,त्याग, निष्ठा, लगन ही "आक्सीजन" का काम करती है। संगठन के गठन का उद्देश्यपूर्ण "सकारात्मक परिकल्पना" करने वाले संस्थागत सदस्यों की महान सोच का सदैव स्मरण किया जाता रहा है। संगठन एक सदस्यों का समूह है, इसके कुशल संचालन व सफलता के लिए आवश्यक है कि इसमें लोकतंत्र कायम रहे, इसके संचालक मंडल में निष्ठावान, समर्पित, त्यागी सदस्यों की कुशल कार्यप्रणाली ही संगठन को जीवित रखने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। 

संगठन में लोकतंत्र का अभाव व सदस्यों की भावनाओं को आहत करने वाले छोटे से छोटे कदम व पदलोलुपता धीरे-धीरे संगठन को कमजोर कर मृत अवस्था में पहुँचा सकती है, इसका यह अर्थ नहीं है कि अनुशासन हीनता बर्दाश्त की जावे। संगठन का अपना संविधान होता है, सभी सदस्यों की जवाबदेही है, इसके दायरे में रहकर कार्य करें। लोकतंत्र में असहमति सुधार के अवसर प्रदान करती है बशर्ते यह जाजम व संगठन के भीतर तक रहे। व्यक्ति पूजा ने हमेशा संगठनों को कमजोर किया है। 

कर्मचारियों के मामले में मप्र में शुरूआती दौर में शासन द्वारा मान्यता प्राप्त पत्राचार के लिए तीन संगठन थे जो मप्र राजपत्रित अधिकारी संघ, मप्र तृतीय वर्ग शासकीय कर्मचारी संघ व मप्र लघुवेतन कर्मचारी संघ के रूप में अधिकारी से लेकर एक अदने कर्मचारी तक के लाखों कर्मचारियों का प्रतिनिधित्व करते थे। सरकार के सामने जब ये अपनी जायज मांगों को लेकर हुंकार भरते थे तो इसकी अनदेखी शासन के लिए आसान नहीं होती थी। इतिहास गवाह है कई अवसरों पर कर्मचारियों की नाराजगी से सत्ताधीशों को सत्ता से हाथ धोना पड़ा है। यही कारण है कि सत्ताधारी दल के लिए "कर्मचारी नेताओं" की नरम नब्ज पहचान कर तद्नुसार संगठनों को कमजोर करने के उपाय, संगठनों के अंदर महत्वाकांक्षी सदस्यों की भावनाओं को परवाज दी; वहीं दूसरी ओर संगठनों में टूट का आसान तरीका 80 के दशक से अपनाया गया जो बदस्तूर राजनीतिक, जातिगत, विभागीय व विभागों में भी एकाधिक कर्मचारियों के बीच नये-नये संगठन तैयार किये गये। 

यहीं से कर्मचारी संगठनों के पराभव का दौर प्रारंभ हुआ। संगठनों की एकता क्या टूटी, कर्मचारियों की किस्मत फूट गई वहीं सत्ताधीशों की पौ बारह हो गई। एक जमाना था जब कर्मचारियों की मांगों की पूर्ति की जाती थी, आज ये हाल है "जो मिल रहा उसे बचाना तो ठीक उल्टे मांग पत्र साल दर साल सुरसा के मुंह की तरह सरकार की ओर से बढ़ाया जा रहा है।" सरकारों को चुनावी नफा नुकसान का भय न हो तो निश्चित ही कर्मचारियों का जीना मुहाल हो जाता। अभी भी कर्मचारियों की नाराजगी की दस्तक सत्ताधारियों की नींद उड़ाती रहती है, वहीं विपक्ष भी चातक पक्षी की तरह मौके की तलाश में घात लगाए बैठा रहता है। शासन और संगठन की कुटिल चालों का खामियाजा निचले स्तर पर कर्मचारियों को भुगतना पड़ता है। 

एकाधिक सदस्यों की नेतृत्व होड़ ने संगठनों को खोखला करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। परिणाम स्वरूप संगठन में "गुटबाजी" व एक ही नाम पंजीयन पर एकाधिक संगठन का "बोल-बाला" है। अपने को साबित करने व अन्य को फर्जी घोषित करने का अंतहीन सिलसिला माननीय उच्च न्यायालय व पंजीयक फर्म्स एवं संस्था  के बीच चलता रहता है। दिवंगत एवं सेवानिवृत हो चुके संस्थापक सदस्यों की कर्मचारी हितैषी भावनओं पर यह वज्रपात से कम नहीं हैं। कतिपय बुध्दिजीवियों पर पद लोलुपता तांडव जो कर रही है!
लेखक श्री कन्हैयालाल लक्षकार मप्र तृतीय वर्ग शास कर्मचारी संघ के प्रांतीय उपाध्यक्ष हैं। संपर्क 9424099237, 9340839574
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