जी एम बीज और फसल पर नीति स्पष्ट हो | EDITORIAL by Rakesh Dubey

यूँ तो भारत में बैगन और सरसों में जी एम बीज की सीमित अनुमति है, पर कपास के अलावा जीएम फसलों के व्यावसायिक उपज को हरी झंडी नहीं मिली है| भारत समेत दुनिया के विभिन्न देशों में जेनेटिकली मोडिफाइड (जीएम) फसलों पर कई सालों से जारी विवाद एक बार फिर चर्चा में है| पिछले महीने पत्रिका 'करेंट साइंस' में हरित क्रांति के जनक एमएस स्वामीनाथन और वैज्ञानिक पीसी केसवन ने एक लेख में जीएम फसलों की आलोचना की थी| इस पर अनेक विशेषज्ञों ने आपत्ति जताते हुए कहा कि इसमें महत्वपूर्ण वैज्ञानिक तथ्यों को नजरअंदाज किया गया है|आपत्ति जतानेवालों में केंद्र सरकार के प्रमुख वैज्ञानिक सलाहकार के विजय राघवन भी हैं| इन विरोधों के बाद उस लेख को हटा लिया गया है, लेकिन जैव-तकनीक के माध्यम से बीजों की संरचना में बदलाव कर अधिक उपज के पक्षधरों और इन प्रयासों को भूमि, पर्यावरण एवं स्वास्थ्य के लिए हानिकारक बतानेवालों के बीच बहस थमने का फिलहाल कोई संकेत नहीं है| जैव-तकनीक बीज के डीएनए यानी जैविक संरचना में बदलाव कर उनमें ऐसी क्षमता भर देता है जिससे उन पर कीटाणुओं, रोगों और पर्यावरण का असर नहीं होता|

दुनिया के कई देशों में अलग-अलग नियमों के तहत ऐसी फसलें उगायी जा रही हैं| भारत में बैगन और सरसों में सीमित अनुमति है, पर कपास के अलावा जीएम फसलों के व्यावसायिक उपज को हरी झंडी नहीं मिली है| कपास उपज में सबसे पहले बड़े पैमाने पर जीएम बीज का इस्तेमाल हुआ था और उत्पादन में भी भारी बढ़त हुई थी. परंतु पिछले कुछ सालों से खेतों और फसलों को कई समस्याओं का सामना करना पड़ा है तथा इस संबंध में जांच-पड़ताल चल रही है अवैध रूप से ऐसे कपास के बीज बेचने के मामले भी हैं| 

भारत में जीएम खाद्य पदार्थों के आयात पर भी रोक है, पर ऐसी चीजें बेची जा रही हैं| पिछले साल सरकार ने भी माना था कि २००७  से जीएम सोयाबीन और कैनोला तेल भारत में लाया जा रहा है| इस संबंध में सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती नियमन का अभाव है| यह आश्चर्य की बात है कि इतने सालों की बहस और चर्चा के बावजूद भी सरकार न तो फसल उगाने के बारे में कोई समझ बना पायी है और न ही आयात के बारे में नियमों का निर्धारण हो सका है| 

जीएम बीज और जरूरी चीजों के दाम बहुत अधिक हैं. अगर फसल अच्छी नहीं हुई, तो छोटे किसान बर्बाद हो जाते हैं| भारत में उपज के मामले में परिणाम संतोषजनक नहीं हैं और अब कपास किसानों को परंपरागत तरीके अपनाने के लिए कहा जा रहा है|कपास की खेती वाले इलाकों में किसानों का संकट सबसे गंभीर है| चूंकि ये बीज और फसलें प्राकृतिक प्रक्रिया से मेल नहीं खातीं, तो जमीन और पर्यावरण को भी नुकसान पहुंचा सकती हैं| ऐसी उपज के उपभोक्ताओं के स्वास्थ्य को लेकर भी चिंता जतायी गयी है| जरूरत इस बात की है, जैसा डॉ स्वामीनाथन ने कहा है, कि तकनीक को अपनाने से पहले उसके नफा-नुकसान का ईमानदार हिसाब होना चाहिए| सरकार को इस बारे में अपनी नीति स्पष्ट करना चाहिए |
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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