भव्य शिलान्यास कार्यक्रम और ये सवाल / EDITORIAL by Rakesh Dubey

अयोध्या में भव्य राम मन्दिर का शिलान्यास हो गया | विरोध में दिखने वाली कांग्रेस भी अब राम के पक्ष में थी, पर समूची भाजपा  राम के पक्ष में तो थी पर कार्यक्रम के ...? तीन दिन से इस विषय पर लगातार लिखने के कारण कई सवाल पाठकों और मित्रों ने पूछे, मुम्बई से प्रबन्धन की छात्रा नीति शर्मा का सवाल सबसे रोचक था | उनकी उत्कंठा थी “इस कार्यक्रम को और गरिमापूर्ण कैसे बनाया जा सकता था ?” उसी के उत्तर में बहुतों के उत्तर छिपे हैं | “नीति, राम के सारे कार्यक्रम गरिमापूर्ण ही होते हैं और होते रहेंगे | कोई भी कार्य संख्या बल से गरिमा पूर्ण नहीं होता, गरिमा तो विचार से  बनती है | आपका सवाल लगता है कुछ व्यक्तियों की उपस्थिति-अनुपस्थिति पर कोई टिप्पणी चाहता है, अब उसका कोई औचित्य नहीं है |” हाँ ! अगर आयोजकों ने पहले यह विचार किया गया होता तो आयोजकों के मुकुट में एक सुनहरा पंख और लग जाता जिससे उनकी आभा और चमकदार दिखती | यह अवसर अब निकल गया है | जिस तरह राम सबके हैं, वैसे ही देश किसी एक व्यक्ति या समूह से नहीं बनता | देश और खासकर भारत तो सहमत, असहमत, उपस्थित, अनुपस्थित, पूर्व, वर्तमान, भविष्य,सबका जागृत पिंड है | यहाँ हमेशा दो विपरीत धाराएँ दिखती है और कई धाराएँ इनके समानांतर बहती हैं | 

देश के सामने ऐसा ही अवसर सोमनाथ मन्दिर के निर्माण के समय भी आया था | तब सोमनाथ पुनर्निर्माण को लेकर कांग्रेस के दो खेमों में काफी टकराव देखने को मिला था । तब जवाहर लाल नेहरू एक किनारे पर थे तो सरदार वल्लभ भाई पटेल और डाक्टर राजेंद्र प्रसाद दूसरे किनारे पर । दोनों की खेमों की सोच पूरी तरह अलग थी। कांग्रेस नेता और नेहरू सरकार में  तबके मंत्री के एम मुंशी सोमनाथ का पुनर्निर्माण करना चाहते थे, उन्होंने इस मुद्दे को कई बार जोरशोर से उठाया।

कहीं- कहीं उल्लेख मिलता है कि पटेल और मुंशी इस प्रस्ताव को लेकर महात्मा गांधी के पास गए और उनके सामने सोमनाथ पुनर्निर्माण का प्रस्ताव रखा था। गांधी ने इसके लिए अपनी सहमति व्यक्त की, लेकिन उन्होंने कहा कि इसके लिए सरकारी धन का इस्तेमाल ना किया जाए, बल्कि इसका खर्च लोगों को उठाना चाहिए। इसके बाद सोमनाथ पुनर्निर्माण के लिए ट्रस्ट बनाया गया, जिसके अध्यक्ष के एम् मुंशी को बनाया गया। १९५० में सरदार  पटेल की मृत्यु के बाद सोमनाथ पुनर्निर्माण की पूरी जिम्मेदारी केएम मुंशी के कंधों पर ही रही। 

सोमनाथ का पुनर्निर्माण पूरा होने के बाद जब इसके उद्घाटन की बारी आई तो असली विवाद शुरू हुआ। कहा जाता है कि पुनर्निर्माण को लेकर केएम मुंशी और नेहरू में काफी मतभेद थे। दोनों एक दूसरे से पूरी तरह असहमत थे और खुलकर विरोध भी दर्ज करा चुके थे। ऐसे हालात में जब उद्घाटन की बारी आई तो मुंशी यह प्रस्ताव लेकर  तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद के पास गए। उन्होंने अपनी सहमति दे दी, लेकिन नेहरू को जब इसकी जानकारी हुई तो वे काफी नाराज हुए। उन्होंने तुरंत राष्ट्रपति को पत्र लिखकर कहा कि यदि वह इस कार्यक्रम में ना जाएं तो बेहतर होगा। लेकिन डॉ प्रसाद ने नेहरू की इस सलाह को नहीं माना। इतिहासकार लिखते हैं कि नेहरू का मानना था कि यह उनके 'आइडिया ऑफ इंडिया' के विचारों से मेल नहीं खाता था, क्योंकि वह मानते थे कि सरकार और धर्म को अलग-अलग रखने की जरूरत है। इस बार भी यह असंतोष ऐसे ही किसी ‘आइडिया’ का नतीजा है |
 
 सोमनाथ में डॉ राजेंद्र प्रसाद ने उस दिन जो कहा था वो आज भी मौजूं है “दुनिया देख ले कि विध्वंस से निर्माण की ताकत बड़ी होती है। उन्होंने इस दौरान यह भी कहा था कि वह सभी धर्मों का सम्मान करते हैं और चर्च, मस्जिद, दरगाह और गुरुद्वारा सभी जगह जाते हैं।“ यह बात आज भी कार्य्रकम में जाने के सन्दर्भ में प्रासंगिक है | आज कुछ दूसरे सवाल भी है जिनमे सम्मान, पारदर्शिता, महत्व और उपयोगिता है | सारी कथा इन्ही में लिपटी है | कुछ लोगों की उपस्थिति इस मिशन को आशीर्वाद दे सकती थी, कुछ लोगो की उपस्थिति उनके राष्ट्रीयता के बोध को बढ़ा सकती थी, कुछ को बुलाकर आप उनके दिल जीत सकते थे, कुछ की उपस्थिति इस जुमले को उछलने से रोक सकती थी कि “बाबरी मस्जिद थी और रहेगी”|

इंदौर के एक मित्र ने इस कार्यक्रम के निमित्त एकत्र धन और उसके प्रयोग पद्धति पर भी स्पष्टीकरण चाहा है | इस पर जवाब देने का अधिकारी ट्रस्ट है, वो ही देंगे | मै तो कोष की पारदर्शिता का ही निवेदन कर सकता  हूँ |
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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