बैकों के व्यवसाय में नियमन और पारदर्शिता जरूरी | EDITORIAL by Rakesh Dubey

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नई दिल्ली। जब 2013-14 से हर साल लगभग पांच लाख करोड़ रुपये की कर्जमाफी होती रही हो और इसमें लगभग ढाई लाख करोड़ रुपये केंद्र व राज्य सरकारें किसानों को राहत पहुंचाने के नाम पर माफ करती रहीं।करीब डेढ़ लाख करोड़ रुपये की माफी एनपीए की थी, जो बड़े-बड़े कारोबारियों के डूबत कर्ज थे। शेष राशि अन्य तरह की माफी थी। तो यह सब होना ही था एक नहीं कई बैंक इसकी जद में आयेंगे। संतोष की बात यह है कि पिछले तीन साल में सरकार ने तमाम तरह की बंदिशें लगाकर इसे लगभग दो-ढाई लाख करोड़ रुपये कर दिया है। देश में आर्थिक सुस्ती की एक वजह यह भी है। 

वैसे, यूं तो एनपीए का लफडा सिर्फ इसी [यस ] बैंक का नहीं है। देश के सभी सरकारी, सहकारी और निजी क्षेत्र के बैंक इससे जूझ रहे हैं। शुरुआती वर्षों में इसकी काफी अनदेखी हुई थी, लेकिन पिछले चार साल से केंद्र सरकार ने इससे निपटने के खास जतन किए हैं। रघुराम राजन और उर्जित पटेल जैसे आरबीआई गवर्नर ने 13-14 सरकारी बैंकों को तत्काल सुधारात्मक कार्रवाई [पीसीए] के अंतर्गत डाल रखा था, जो एक तरह का प्रतिबंध ही है। इसमें बैंक न तो नई शाखा खोल सकते हैं, न नए कर्मचारियों की नियुक्ति कर सकते हैं और न ही नए कर्ज वगैरह बांट सकते हैं। इसमें धन-निकासी, और अन्य ग्राहकों से जुड़े प्रतिबंध नहीं होते। बाजार के नजरिए से देखें, तो पीसीए जैसी कार्रवाई अच्छी नहीं मानी जाती, क्योंकि इससे बाजार में तरलता कम हो जाती है और लेन-देन प्रभावित होता है।पर यह अकेली चूक नहीं है। 

यस बैंक की आर्थिक सेहत कितनी बिगड़ चुकी थी, इसका अंदाजा जमा राशि पर उसके द्वारा दिए जाने वाले ब्याज से भी लग रहा था। यह दर किसी बैंक की स्थिति जानने का सबसे सरल तरीका है। अगर कोई बैंक अन्य बैंकों की तुलना में आम जनता को जमा-राशि पर अधिक ब्याज दे, तो यही माना जाता है कि उस बैंक के पास पैसे का अभाव है, इसलिए वह ज्यादा दर पर आम जनता से रुपये लेकर अपना कारोबार कर रहा है। इसका यह अर्थ नहीं लगाया जाना चाहिए कि उस बैंक में लोगों की जमा-राशि असुरक्षित है। जमा-राशि पर बाकायदा बीमा होता है। पहले एक खाते में एक लाख रुपये तक की राशि बीमित होती थी, जिसे गत 4 फरवरी को आर बी आई ने अधिसूचना जारी करके पांच लाख कर दिया है। यस बैंक के मौजूदा संकट से छोटे निवेशक शायद ही प्रभावित होंगे। हां, बड़े निवेशकों को नुकसान हो सकता है,जिसमे तिरुपति बालाजी ट्रस्ट भी है। 

इस मामले ने एक बार फिर बैंकिंग क्षेत्र में सुधार की मांग तेज कर दी है। कुछ सुधार तो निहायत जरूरी हैं। मसलन, बैंकों के ऑडिट का तरीका जल्द से जल्द बदलना चाहिए। सत्यम घोटाले के बाद केंद्र सरकार ने यह फैसला लिया था कि कोई भी ऑडिटर एक ही कंपनी की लगातार ऑडिट नहीं कर सकता, अधिकतम वह दो बार ऐसा कर सकता है। मगर यह नियम बैंकों पर लागू नहीं होता, क्योंकि बैंक आरबीआई रेगुलेशन ऐक्ट से संचालित होते हैं। अब इस नियम को बैंकों पर भी लागू करने का समय आ गया है।

बैंकों के कामकाज में पारदर्शिता लाने के लिए अंतरराष्ट्रीय बैंक कुछ नियमों को अपनाते हैं। एक संस्था इन नियमों को तय करती है। यह संस्था पहले अंतरराष्ट्रीय बैंकों के आपसी विवाद के निपटारे के लिए गठित की गई थी, मगर अब यह बैंकों की सेहत संवारने के नियम-कानून भी बनाने लगी है। भारत के बैंक इन नियमों का पालन नहीं करते, जबकि इन नियमों को अपनाने उनकी जवाबदेही बढ़ जाएगी। आरबीआई ने मार्च, 2020 तक सभी बैंकों के लिए इन नियमो में से कुछ अपनाना अनिवार्य किया था, लेकिन इस समय-सीमा में ऐसा होना संभव नहीं दिख रहा। एक और उपाय हो सकता है |इसके तहत बैंकों को अपनी आर्थिक स्थिति मीडियाके माध्यम से शेयर बाजार की तरह रोजाना आम जनता को अनिवार्य रूप से बताये। 
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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