कैसे भी टाले इस विश्व युद्ध की आशंका को | EDITORIAL by Rakesh Dubey

नई दिल्ली। भले ही ईरान व अमेरिका समर्थक देशों की सेनाएं अलर्ट पर हैं, बल्कि सऊदी अरब और इस्राइल ने भी अपनी सीमाओं पर मिसाइलें तैनात कर सेना को तैयार रहने का आदेश दे दिया हो। भारत के शांतिप्रिय लोगों के साथ विश्व का एक बड़ा हिस्सा तीसरा विश्व युद्ध नहीं चाहता है अफ़सोस ईरान सुलेमानी की मौत का बदला लेने का ऐलान कर चुका है, जानकार इसे सुलेमानी पर नहीं, सीधे-सीधे ईरान पर हमलामान रहे हैं। अमेरिका ने तो यह शुरुआत कर एक तरह से युद्ध की पहल कर दी है। शांति प्रिय लोगों को देशो और देशों के समहों को फल करना चाहिए इसमें किसी का भला नहीं है।

अमेरिका ने मध्य-पूर्व में 3000 और सैनिक भेजने का ऐलान किया है। इस क्षेत्र में उसके 14000 सैनिक पहले से ही तैनात हैं। दूसरी और इराक की राजधानी बगदाद में अमेरिकी दूतावास पर रॉकेट से हमला किये जाने के निरंतर समाचार मिल रहे है। अमेरिकी रक्षा विभाग ने कहा है कि विदेशों में स्थित अमेरिकी सैनिकों की सुरक्षा के लिए सुलेमानी बड़ा खतरा था, इसलिए राष्ट्रपति ट्रंप के निर्देश पर सुलेमानी को मारने का कदम उठाया गया। पिछले दिनों इराक व अन्य देशों में अमेरिकी सैन्य ठिकानों पर जो हमले हुए अमेरिका उनके पीछे सुलेमानी का हाथ मानता है।

सब जानते हैं,जनरल कासिम सुलेमानी ईरानी इस्लामिक रेवॉल्यूशनरी गार्ड कोर्प्स (आईआरजीसी) की कुद्स फोर्स यूनिट के चीफ थे। कुद्स फोर्स को रेवॉल्यूशनरी गार्ड की विदेशी शाखा माना जाता है, जो देश से बाहर ईरान के सैन्य अभियानों का संचालन करती है। सुलेमानी को पश्चिमी एशिया में ईरानी गतिविधियों का प्रमुख रणनीतिकार माना जाता था। उनका सबसे बड़ा योगदान इराक और सीरिया में आईएस से मुकाबला करने के लिए कुर्द लड़ाके और शिया मिलिशिया को एकजुट करने का रहा। उन्होंने हिजबुल्ला और हमास जैसे चरमपंथी संगठनों की मदद की। वे सीरिया में बसर-अल-असद सरकार के परोक्ष सलाहकार थे। जनरल कासिम सुलेमानी का जादू ईरानियों के सिर तब चढ़ कर बोलने लगा जब साल 1980-88 के ईरान-इराक युद्ध के दौरान उन्होंने देश का कुशल नेतृत्व किया। वे ईरान के सुप्रीम लीडर अयोतुल्लाह खोमेनी के बाद देश के दूसरे सबसे ताकतवर शख्स के तौर पर जाने जाते थे।

सहीमायने में अमेरिका द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों के बाद तनाव इस कदर बढ़ गया कि दोनों देश युद्ध के कगार तक पहुंच गए हैं। ताजा विवाद उस वक्त उठ खड़ा हुआ जब बीते साल 31 दिसंबर को ईरान समर्थित कुछ प्रदर्शनकारियों ने बगदाद में अमेरिकी दूतावास में तोड़-फोड़ कर आग लगा दी थी। इस पर अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने तल्ख प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि ईरान को इसकी बड़ी कीमत चुकानी होगी। ट्रंप के इस बयान के महज 48 घंटें के भीतर ही अमेरिकी सेना ने सुलेमानी को मार गिराया। जनरल सुलेमानी की मौत तेहरान के लिए बड़े झटके की तरह है। तेहरान इस बात को जानता है कि अगर उसे मध्य-पूर्व में अपना दबदबा कायम रखना है तो बिना देरी किए सुलेमानी की मौत का बदला लेना होगा।

सवाल यह है कि क्या अमेरिका के आर्थिक प्रतिबंधों के मार्ग में सुलेमानी बाधा बन रहे थे। अमेरिकी प्रतिबंधों के खिलाफ जारी लड़ाई का सुलेमानी ने जिस चतुराई से नेतृत्व किया उसे देखते हुए यह आशंका बेमानी भी नहीं है। इससे पहले अमेरिका खाड़ी में तेल टैंकरों पर हमले, अमेरिकी ड्रोन को गिराने व इराक में अमेरिकी सैन्य कैंप पर किए गए हमलों का आरोप ईरान के सिर मढ़ता रहा है। यहां तक कि सऊदी अरब के एक बड़े तेल ठिकाने पर हमले का दोषी भी उसने ईरान को माना है। सच तो यह है कि देश के भीतर महाभियोग की कार्रवाई में उलझे ट्रंप को इस साल चुनाव का सामना करना हैं। ऐसे में वह अमेरिकी मतदाताओं को राष्ट्रवाद के नाम पर आकर्षित करना चाहते हैं।

इसमें किसी को शक नहीं होना चाहिए कि इस अमेरिकी कार्रवाई से वैश्विक जगत अछूता नहीं रहने वाला है। सुलेमानी की मौत के तुरंत बाद तेल की कीमतों में चार फीसदी का बड़ा इजाफा हो गया तथा अंतर्राष्ट्रीय बाजार में सोने और चांदी की कीमतें भी बढ़ गयीं। अमेरिका से बढ़ते सैन्य तनाव के बीच अगर ईरान दुनिया के सबसे महत्वपूर्ण तेल मार्ग कहे जाने वाले हॉर्मूज जलडमरूमध्य को बंद कर देता है, तो वैश्विक तेल निर्यात में करीब 30 प्रतिशत की गिरावट आ जाएगी, जिससे दुनियाभर में तेल के लिए हाहाकार मच जाएगा। इससे तेल के दाम तो बढ़ेंगे ही साथ ही खाड़ी देशों में हालात बिगड़ेंगे। नि:संदेह वैश्विक स्तर पर खतरनाक मोर्चेबंदी का दौर तो शुरू होगा ही, दुनिया में तीसरे विश्वयुद्ध की आहट भी सुनाई देने लगी है। इसे टालना विश्व के हिता में है, सबको कोशिश करना चाहिए।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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