रियासतों के समीकरण से बिगड़ गया गठबंधन का गणित | POLITICAL NEWS

राजेन्द्र बंधु। यदि सपा, बसपा जैसे कुछ दलों के गठजोड़ को छोड़ दें तो विपक्ष की एकता लगभग खत्म हो चुकी है। इस परिस्थिति में यह सवाल सामने आना स्वाभाविक है कि गोरखपुर और केराना में महा गठनबंधन के उत्साहजनक परिणाम के बावजूद आखिर ये दल उसे लोकसभा चुनाव में दोहाराने को तैयार क्यों नहीं है? खासकर उत्तरप्रदेश में कांग्रेस को अलग कर सप-बसपा के गठनबंधन में अपनी स्थिति स्पष्ट कर दी है और यहां कई सीटों पर त्रिकोणीय मुकाबले की स्थिति बनने जा रही है। 

भारतीय राजनीति चाहे ऊपर से कितनी ही सपाट क्यों न दिखाई दें, लेकिन उसमें कई परतें और उलझनें भी मौजूद है, जो विपक्षी बिखराव के लिए जिम्मेदार है। हम मानते हैं कि कांग्रेस, सपा, बसपा और अन्य विपक्षी दल बीजेपी को हराना चाहते है, किन्तु यह जानना भी जरूरी है कि ये बीजेपी को अपनी शहदत की कीमत पर हराना नहीं चाहेंगे। इसकी पृष्ठभूमि नवंबर-दिसम्बर में हुए विधानसभा चुनावों में तैयार हो गई थीं। विपक्षी राजनीति के जरिये जहां कुछ दल अपने ही साथियो की नींव पर अपनी जमीन तलाश रहे थे वहीं ये दल अपनी रियासत में दूसरे को प्रवेश देना नहीं चाहते थे। यही कारण है कि पिछले विधानसभा चुनावों में मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस,  बसपा और सपा का महागठबंधन आकार नहीं ले सका।

यह स्पष्ट है कि मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़  के विधानसभा चुनावों के शुरूआती दौर में यहां कांग्रेस और बसपा के गठबंधन की चर्चा शुरू हुई थीं। इसकी असफलता के कई कारण रहे हैं, जिनमें एक कांग्रेस को अपने रण की सुरक्षा की चिन्ता  थी। क्योंकि बीजेपी के साम्राज्य को शिकस्त देने की मंशा रखने वाली कांग्रेस अपनी रियासत में किसी अन्य को जगह देने के लिए तैयार नहीं थीं। जबकि बसपा और सपा कांग्रेस की इस जमीन पर अपने पैर जमाना चाहती थीं। मध्यप्रदेश में सपा का कोई प्रभाव नहीं रहा है और बीएसपी के पास मतदाताओं को एक वर्ग रहा है, किन्तु उनकी संख्या इतनी प्रभावशाली नहीं रही कि सरकार बना सकें। 

मध्यप्रदेश में पिछले विधानसभा चुनावों में भले ही बसपा, सपा, गोंडवाना गणतंत्र पार्टी ने कम मत हासिल किए हों, पर कुछ सीटों पर कांग्रेस और भाजपा को उन्होंने बड़ा नुकसान पहुंचाया। कई सीटों पर उन्होंने सियासी समीकरण बिगाड़ दिए। प्रदेश में दस साल बाद सपा विधानसभा में एक सीट से अपना खाता खोलने में सफल रही, जबकि चुनावी नतीजे बसपा-सपा के लिए जोर का झटका देने वाले रहे। इस बार बसपा की 4 सीटें घटकर दो ही रह गईं। बसपा ने सबसे बेहतर प्रर्दशन राजस्थारन में किया। वहां उसने 4 प्रतिशत वोट के साथ 6 सीटें जीतने में कामयाबी हासिल की। छत्तीसगढ़ में भी बसपा ने पिछली बार से बेहतर प्रदर्शन किया। इस तरह बीएसपी ने तीनों राज्यों में अपना वोट प्रतिशत बढ़ाया, जो बीजेपी से ज्यादा कांग्रेस के लिए डर का कारण है। इस दशा में कांग्रेस नहीं चाहेगी कि वह अपनी जमीन पर गठबंधन के जरिये बीएसपी को हिस्सेदारी करने दें और भविष्य इन राज्योंि में उसकी स्थिति वैसी ही हो जाए, जैसी अभी उत्तरप्रदेश में है।

इसके बावजूद लोकसभा चुनावों में कांग्रेस न सिर्फ गठबंधन की बात कर रही थी, बल्कि महागठबंधन के जरिये बीजेपी को शिकस्त देने की बात करती रही है। किन्तु अपनी रियासत को बचाने की जो इबारत मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस ने लिखी थी, उसे उत्तरप्रदेश में सपा और बसपा ने अपनाया लिया। क्योंकि सपा और  बसपा भी नहीं चाहती थीं कि उत्तरप्रदेश की जिस जमीन पर वे  कांग्रेस को बेदखल कर चुकें हैं, वहां वे उसे वापस अपनी जमीन तैयार करने दें।

यही कहानी पश्चिम बंगाल और दिल्ली की है। ममता बैनर्जी की महागठबंधन की पहल के पीछे विपक्षी की नेतृत्व शून्यता से उपजा उत्साह था, जो उसे प्रधानमंत्री की दौड़ में शामिल कर सकता था। किन्तु उन्हें  जल्दी ही समझ में आ गया कि बंगाल से दिल्ली तक की यह दौड़ इतनी आसान नहीं है और इस दिशा में उसे गठबंधन के क्षत्रपों से प्रतिस्पर्धा करनी होगी। इसी समझ के चलते ममता बैनर्जी से दिल्लीठ की दौड छोड कर पश्चिम बंगाल में अपने प्रभाव का प्रबंधन करना शुरू कर दिया। यहां बीजेपी की सक्रियता के बावजूद ममता ने कांग्रेस से हाथ मिलाना जरूरी नहीं समझा। क्योंकि वह भविष्य के लिए कांग्रेस के रूप में एक और प्रतिद्वंदी को अपनी जमीन पर हिस्सा नहीं देना चाहती है। ममता बैनर्जी से इसी गणित को कांग्रेस ने दिल्ली में आम आदमी पार्टी पर दोहराया। आम आदमी पार्टी चाहती है कि दिल्ली में गठबंधन करके वह हरियाणा में जमीन बना लें और पंजाब में जमीन ज्यादा मजबूत कर लें। जबकि कांग्रेस अपनी इन रियासतों में आम आदमी पार्टी को जगह देने को तैयार नहीं। 

इन समीकरणों से यह स्पष्ट है कि कांग्रस सहित अन्य सभी विपक्षी दल बीजेपी के साम्राज्य से उतने आशंकित नहीं है, जितने की अपनी रियासतों में संभावित अतिक्रमण से। इसी आशंका की भूमि पर महा गठबंधन के गणित दफना दिया गया।    
राजेन्द्र बंधु
स्वतंत्र टिप्पणीकार
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