मनोरंजन पर सरकारी पेंचकसी | EDITORIAL

राकेश दुबे@प्रतिदिन। फेक न्यूज़ के आदेश के बाद अब सूचना प्रसारण मंत्रालय आपके डीटीएच बॉक्स में चिप लगाना चाहता है ताकि जान सके कि आप क्या देखते हैं? वह यह भी चाहता है कि ब्रॉडकास्ट ऑडियंस रिसर्च काउंसिल (बार्क) इस आकलन के लिए किसी चैनल के लैंडिंग पेज का इस्तेमाल बंद कर दे। वह ऑनलाइन सामग्री को नियंत्रित करना चाहता है। मंत्रालय चाहता है कि दूरदर्शन का नि:शुल्क डिश टीवी निजी चैनलों की सब्सिडी बंद करे। पर क्यों ?

इसके पक्ष और विपक्ष में कई दलील दी जा रही हैं।  सबसे अहम बात यह है कि इन कदमों का उद्देश्य १४७३ अरब रुपये के फलते-फूलते उद्योग का सूक्ष्म प्रबंधन करना है। आखिर वह बड़ी नीति कहां है जो देश के इस महत्त्वपूर्ण लेकिन सीमित मुद्रीकरण वाले मीडिया और मनोरंजन क्षेत्र के लिए उत्प्रेरक का काम कर सके और उसे ऐसी क्षमता प्रदान कर सके कि वह जीडीपी के मौजूदा आधा फीसदी के स्तर से आगे बढ़ सके? 
टेलीविजन की संख्या के मामले में भारत दूसरा सबसे बड़ा बाजार है लेकिन यहां भी उतना मुद्रीकरण नहीं हुआ है जितना होना चाहिए था। किसी भी अन्य बाजार में मसलन अमेरिका, ब्रिटेन या यूरोप में केवल आकार का मतलब यह होगा कि सरकार रोजगार और कारोबार की कर उत्पादक क्षमताओं पर अत्यधिक ध्यान केंद्रित करेगी। वे इस बात पर तमाम अध्ययन होना चाहिए था कि कैसे मंत्रालय बेहतर मुद्रीकरण की सुविधा प्रदान कर सकता है।

देश में २९.७ करोड़ घर हैं जिनमें से १८.३ करोड़ घरों में टीवी है। एक अध्ययन के मुताबिक भारतीय टेलीविजन उद्योग से ५  लाख लोगों को सीधा रोजगार मिलता है जबकि प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष मिलाकर करीब १६.५ लाख लोगों को रोजगार मिलता है। इसका सकल उत्पादन या इस उद्योग के तमाम प्रतिभागियों का मिलाजुला राजस्व टेलीविजन उद्योग के ६६०  अरब रुपये के आकार से दोगुना है। 

इस उद्ध्योग के लिए कोई स्पष्ट नीति के न होने का क्या अर्थ है। पिछले एक दशक में मंत्रालय ने दो बड़े निर्णय लिए। पहला केबल डिजिटलीकरण और दूसरा रेडियो स्पेक्ट्रम की नीलामी। पहले कदम के चलते टेलीविजन क्षेत्र में अरबों डॉलर की रकम आई और प्रसारक विज्ञापन राजस्व आधारित कार्यक्रमों की पकड़ से बाहर आए, परंतु डिजिटलीकरण की प्रक्रिया अभी भी पूरी नहीं हो सकी है।

दर्शकों का आकलन कैसे करता है या डीटीएच बॉक्स पर चिप लगाई जाए या नहीं। गत वर्ष विज्ञापनदाताओं ने देश के करीब ८००  टेलीविजन चैनलों पर विज्ञापन देने में २६७  अरब रुपये खर्च किए। विज्ञापनदाता और प्रसारक दोनों ही डेटा के उपयोगकर्ता और सबस्क्राइबर दोनों हैं। साथ ही वे बार्क के सहमालिक भी हैं। बोर्डों और तकनीकी समितियों पर काबिज हैं और वे आसानी से मसलों को सुलझा सकते हैं। 

इस समय करीब 100 चैनल अपनी शुरुआत के लिए लाइसेंस की प्रतीक्षा कर रहे हैं। अगर इन्हें इजाजत मिल जाए तो रेटिंग पर तवज्जो देने से कहीं ज्यादा सकारात्मक असर टेलीविजन उद्योग पर होगा।  एक अन्य उदाहरण हमारे सामने है। भारत में सबसे अधिक फिल्में बनती हैं। हमारा देश फिल्मों के चहेतों का देश है लेकिन राजस्व के मोर्चे पर हमारा बाजार कहीं छोटे बाजारों से भी पीछे है। वर्ष २०१७  में देश के फिल्म उद्योग ने १५६ अरब रुपये की जो आय हासिल की उसका तीन चौथाई हिस्सा बॉक्स ऑफिस से हासिल हुआ। इसके बावजूद देश में केवल ९००० स्क्रीन हैं जबकि मल्टीप्लेक्स हर साल १५०-२०० नई स्क्रीन का इजाफा कर रहे हैं जबकि सिंगल स्क्रीन इससे दोगुनी गति से बंद हो रहे हैं। इसकी वजह से पिछले तीन वर्ष से बॉक्स ऑफिस एक जगह ठहरा हुआ है।

स्क्रीन के विस्तार में पैसे की कमी रुकावट नहीं है बल्कि इसके लिए नौकरशाही जवाबदेह है। एक नया थिएटर खोलने की इजाजत मिलने में छह महीने से दो वर्ष तक का समय लगता है। देश के तमाम हिस्सों में दर्जनों थिएटर तैयार हैं और लाइसेंस की प्रतीक्षा कर रहे हैं। नई नीति बने, जो शीघ्र थिएटर खोलने को बढ़ावा दे तो शायद अधिक बेहतर होगा।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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