
न्यायमूर्ति कर्णन ने मद्रास हाईकोर्ट में कुछ ऑर्डर ऐसे पास किए थे, जो न्यायसंगत नहीं थे। यह तक कहा गया कि आदेश असांविधानिक हैं। उसी से जुड़ा मामला जब सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा, तो शीर्ष अदालत ने उसे रोकने के आदेश जारी कर दिए। जस्टिस कर्णन ने इसे मानने से इनकार कर दिया, जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें अवमानना की नोटिस भेजी। जस्टिस कर्णन अदालत में निजी तौर पर पेश जरूर हुए, मगर उन्होंने नोटिस का जवाब नहीं दिया। उल्टे उन्होंने आदेश जारी करने शुरू कर दिए। देश के प्रधान न्यायाधीश तक को उन्होंने पांच साल की सजा सुना दी, जो बिल्कुल हास्यास्पद है।
अब जस्टिस कर्णन के पास चंद ही विकल्प बचे हैं। वह पुनर्विचार याचिका दाखिल कर सकते हैं या फिर छह महीने की सजा भुगतेंगे।अदालती अवमानना के मामले में जजों के कठघरे में खड़े होने के मामले देश में पहले भी दिखे हैं। अभी कुछ महीने पहले ही सुप्रीम कोर्ट के एक पूर्व न्यायाधीश को अवमानना की नोटिस जारी की गई थी। वह निजी तौर पर अदालत में पेश हुए और अपना जवाब भी दाखिल किया। जवाब में उन्होंने माफी मांगी, जिस कारण अदालत ने वह मुकदमा बंद कर दिया। उस मामले में अदालत ने ‘केस इज क्लोज्ड’ शब्द का इस्तेमाल किया था, यानी मुकदमा खत्म नहीं किया गया।
इस बात की कई नजीर है कि भारत की न्याय-व्यवस्था ‘जैसे को तैसा’ की नीति नहीं अपनाती। परन्तु इसके लिए जरूरी यह है कि जस्टिस कर्णन अदालत में आएं। एक बार वह निजी तौर पर पेश हो चुके हैं, लेकिन जवाब देने से बच रहे हैं। वह सिर्फ आदेश जारी कर रहे हैं। वैसे भी, उन्होंने जो आरोप लगाए हैं, वे बेबुनियाद ही लग रहे हैं। न्यायपालिका जाति के आधार पर दुर्भावना से प्रेरित होकर काम करती है, ऐसी कोई नजीर नहीं है। कुछ भी यह मसला समाप्त होना चाहिए, दुनिया हँस रही है, माई लार्ड।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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