निर्मला जी, अगर यह “एक्ट ऑफ़ गॉड” है, तो प्रबन्धन ? - Pratidin

इससे ज्यादा बुरे हालात क्या होंगे ? देश में हजारों मनुष्य कोरोना के शिकार हो रहे हैं, जिन्दगी काल के गाल में समा रही है। लाखों लोग बीमार है। 1-2 करोड़ लोगो की नौकरी जा चुकी है। राज्यों के पास कर्मचारियों को देने के लिए वेतन नहीं है। केंद्र के पास जीएसटी का पैसा वापिस लौटने के लिए रकम नहीं है। रेलवे, डेढ़ लाख खाली पदों के साथ निजी हाथों के सौपी जा रही है। देश कहाँ था कहाँ आ गया है उत्पादन गिर रहा है विकास दर में एक चौथाई की कमी दर्ज की गई है। देश की वित्त मंत्री निर्मला जी के शब्दों में यह “एक्ट ऑफ़ गॉड” है। उनकी ही बात मान लें, उन्हें और उनकी तरह उन समस्त लोगों को यह ही मानना चाहिये कि यह कर्मों का नतीजा है और यदि है तो सवाल उठता है कि आपका और आपकी सरकार का सारा प्रबन्धन कौशल कहाँ है ? 

समस्त जगत कोरोना से जूझ रहा है, भारत की लड़ाई शायद सबसे ज्यादा चिंताजनक स्थिति में है। कोविड से ग्रसित लोगों की संख्या की दृष्टि से हमारा स्थान दुनिया में  रोज उपरी पायदान पर आ रहा है और आर्थिकी नीचे जा रही है। पिछले छह महीनों में कोरोना के अलावा  बेरोजगारी, भुखमरी, कुपोषण आदि के क्षेत्रों में जो हालात बिगड़े हैं उनमें कोई ठोस सुधार होता दिख नहीं रहा।

एक ओर केंद्र और राज्य सरकारें अपनी शुतुरमुर्गी प्रवृत्ति का परिचय दे रही हैं और दूसरी ओर सरकारों को चेताने वाला भी कोई नहीं दिख रहा। जनतांत्रिक व्यवस्था में यह काम विपक्ष और मीडिया का होता है। हमारी त्रासदी यह है कि विपक्ष अपनी भूमिका निभाने लायक नहीं रहा और मीडिया चौकीदारी की अपनी भूमिका को निभाना ही नहीं चाहता। अगर ऐसा है, तो इस स्थिति का एक ही मतलब निकलता है कि या तो इस देश के नागरिक राजनीतिक रूप से नासमझ है कि उसे सही-गलत का पता ही नहीं चल रहा। ये दोनों ही स्थितियां 70 साल के जनतंत्र के उपर धब्बा और राजनीतिक दलों की नाकामी है।

बेरोजगारी, खस्ताहाल आर्थिक स्थिति, युवाओं की निराशा, मजदूरों की त्रासदी, किसानों की बदहाली आदि से जैसे मुद्दे सुर्खी में नहीं है। यह समूची व्यवस्था के लिए चुनौती है और इसका ठीकरा भगवान के मत्थे फोड़ना, किसी प्रकार की समझदारी नहीं है। देश का संविधान हर नागरिक को सम्मान के साथ जीने का अधिकार देता है और इस अधिकार की रक्षा का दायित्व व्यवस्था पर होता है, जो सरकार कहलाती है। ऐसी स्थिति में सवाल तो उठने ही चाहिए, उत्तर भी मिलने चाहिए पर ऐसा होने नहीं दिया जा रहा है। जब सवाल पूछने वाले  कीचड़ में धंसे दिखे और उत्तर देने के लिए जिम्मेदार तत्व देश के नागरिको  को सब्जबाग़ दिखाने लगे तो भगवान को कोसने की जगह अपने विवेक को जगाये और अपने दायित्वों का निर्वहन करें। 

देश के बाहर चीन और पाकिस्तान अपनी कारगुजारी करने की फिराक में है, आर्थिक मोर्चे पर हम चुनौतियों को समझ ही नहीं पा रहे अथवा समझना ही नहीं चाहते। देश के युवा जो हमारी सबसे बड़ी ताकत हैं, निराशा-हताशा के दौर से गुजर रहे हैं। मजदूर भूखा है, किसान परेशान। कोरोना के चलते सारा भविष्य अनिश्चित-सा लग रहा है। जिनके कंधों पर बोझ है स्थिति सुधारने का, वे या तो आंख चुरा रहे हैं या फिर राह से भटका रहे हैं। भगवान को दोष देने की बजाय आईने के सामने आँखें खोल कर खड़े हों। खुद से सवाल पूछे हम क्या थे और क्या हो गये और क्या होना शेष है ? मक्कारी से वोट लेकर सरकार बनाई जा सकती है पर उसे चलाने का कौशल भारत के राजनीतिक दलों में नहीं है। ये हो या वो हो किसी की पहली प्राथमिकता देश नहीं है, भ्रष्टाचार है। कोई भी भगवान,गॉड,खुदा अपना ईमान, देश, और निष्ठा बेचने का हुकुम नहीं देता है। उसके नाम का ठीकरा मत फोड़ें, अपने कर्मों को सुधारें।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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