विरोध की हद समझिये / EDITORIAL by Rakesh Dubey


प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की नियंत्रण रेखा की यात्रा को संभावित युद्ध का संकेत मान रहे हैं। वैसा हो अथवा न हो पर इस यात्रा से निश्चय ही उन सैनिकों को हौसला बड़ा होगा, जो बेहद प्रतिकूल और जटिल परिस्थितियों में भी देश की सीमाओं की रक्षा के लिए दुर्गम स्थानों पर दिन-रात डटे रहते हैं। गत 15 जून को गलवान घाटी में चीनी सैनिकों से हिंसक भिड़ंत और उसमें 20 भारतीय सैनिकों की शहादत के बाद बने माहौल में बढ़ता तनाव हर कोई महसूस कर रहा है। सबको मालूम है, चीन ने एक बार फिर अपने विश्वासघाती चरित्र का ही परिचय दिया था, अतीत से सबक लिए बिना बार-बार विश्वासघाती पर विश्वास करना समझदारी नहीं कहा जा सकता अभूतपूर्व कोरोना महामारी और लॉकडाउन के कारण इस मुद्दे पर वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिये हुई सर्वदलीय बैठक में गोपनीयता समेत तमाम कारणों से सरकार की अपनी सीमाएं रही होंगी। पहले सभी दलों ने इस मुद्दे पर एकजुटता का ही संदेश दिया बाद में अलग-अलग राजनीतिक राग आलापने में भी देर नहीं लगी।

वैसे राजनीति बुरी बात नहीं है। सवाल पूछना तो लोकतंत्र का बुनियादी अधिकार है, लेकिन हर चीज का समय और सीमा होती है। अगर कोरोना से लेकर गलवान घाटी तक हर मुद्दे पर आलोचना का मकसद सिर्फ केंद्र सरकार या और स्पष्ट शब्दों में कहें तो प्रधानमंत्री मोदी को कठघरे में खड़ा करना रह जायेगा, तब वह प्रासंगिकता खो कर खीझ से उपजा अनर्गल प्रलाप भर रह जायेगा, जबकि यह समय राजनीति का नहीं, राष्ट्रनीति का है। मोदी सरकार और भाजपा भले कहे कि लॉकडाउन समेत समय पर उठाये गये कदमों से कोरोना संक्रमण नियंत्रित करने में मदद मिली, पर संक्रमितों के आंकड़ों में आये दिन की उछाल का सच तो नहीं छिप सकता। जाहिर है, संभावित परिस्थितियों के आकलन और उनसे निपटने की रणनीति बनाने में सरकार से चूक हुई है, पर यह समय आरोप-प्रत्यारोप का नहीं है। केंद्र से लेकर राज्य सरकारों तक से कब क्या चूक हुई, उसकी जिम्मेदारी-जवाबदेही की बहस बाद में भी हो सकती है।कोरोना से संक्रमित भारत अकेला देश नहीं है कोरोना और सीमा संकट विषय में कोई साम्य नहीं है ।

कोरोना के आकलन और निपटने की तैयारी में अन्य देशों की सरकारों से भी चूक हुई होगी, पर क्या वहां कहीं भी दलगत राजनीति से प्रेरित आरोप-प्रत्यारोप का शर्मनाक खेल दिखा? कोरोना किसी भी सरकार की विफलता का परिणाम नहीं है। हां, उससे निपटने की रणनीतियों में विफलता की जिम्मेदारी-जवाबदेही अवश्य सरकारों की होती है। परन्तु सिर्फ सरकारों की ही नहीं यह जिम्मेदारी सिर्फ सरकार के भरोसे भी नहीं छोड़ी जा सकती।

वैसे कोरोना हो या गलवान, दोनों ही संकट चीन के धूर्त और विश्वासघाती चरित्र की ही देन हैं। समाजवादी पृष्ठभूमि के राजनेता और विचारक समय-समय पर केंद्र सरकार को चीन के नापाक मंसूबों के प्रति आगाह भी करते रहे, लेकिन लंबे अंतराल के बाद टास्क फोर्स और विशेष प्रतिनिधि स्तर पर शुरू हुई सीमा वार्ता वजह रही हो या फिर चीन द्वारा बनायी गयी अपनी विश्व महाशक्ति की छवि हर केंद्र सरकार भारतीय सीमा क्षेत्र में चीनी घुसपैठ की हरकतों को नजरअंदाज कर तूल देने से परहेज करती रही।

तीन दशक से भी ज्यादा समय तक दोनों देशों के रिश्तों में जमी रही बर्फ तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी चीन की यात्रा के साथ पिघली थी ।तत्कालीन चीनी नेतृत्व देंग शियाओ पिंग ने भी भारत के युवा प्रधानमंत्री का गर्मजोशी से स्वागत करते हुए दोनों देशों के संबंधों में नये अध्याय की उम्मीद जतायी थी। उसके बाद ही सीमा विवाद निपटारे के लिए टास्क फोर्स बनी, जिनमें बाद में अटलबिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्वकाल में विशेष प्रतिनिधि शामिल करने का भी फैसला हुआ।

यह गलवान अचानक नहीं हो गया। अरुणाचल, सिक्किम और यहां तक कि उत्तराखंड में भी पिछले कई दशकों में चीनी सेना की नापाक हरकतें जारी हैं। दोनों देशों के बीच होने वाली वार्ताओं में इस तनाव को कम किया जाता रहा, लेकिन उस प्रक्रिया, जिसे अब दिखावा कहना ज्यादा सही लगता है। हमारे 20 सैनिकों की शहादत का सच सबके सामने है, पर मारे तो चीनी सैनिक भी गये हैं, जिनकी संख्या न तो चीन बता रहा है, न ही वहां कोई पूछ भी रहा है। तर्क दिया जा सकता है कि चीन में तानाशाही है, जबकि भारत में लोकतंत्र। बेशक यह बड़ा और बुनियादी फर्क है, जो दोनों देशों के चरित्र में भी साफ नजर आता है कम से क मइस संकटकाल में तो राष्ट्रहित में राजनीति नहीं होना चाहिए।

आज देश जिन हालातों से गुजर रहा है उसमें किसी भी स्थिति की संभावना-आशंका से इनकार भी नहीं किया जा सकता, लेकिन हर समझदार आदमी जानता है कि युद्ध अक्सर अंतिम विकल्प तो माने जाते हैं, पर विरोध के नाम पर नयी समस्याएं ही पैदा करने को क्या नाम दिया जाए।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
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