दुष्काल : उन्नत तकनीक और छोटे मन / EDITORIAL by Rakesh Dubey

कल सुबह जयपुर-जबलपुर हाई-वे पर जो भीड़ चल रही थी, वो भारत की झांकी थी। कुछ के पैरों में घिसी चप्पल तो कोई नंगे पैर किसी ने कल रात कुछ खाया था तो किसी ने उसी बची रोटी से सेहरी कर ली थी। ये सब कोरोना के कारण अपने काम-काज से मुक्त होकर गाँव लौट रहे थे, इनमें कुछ भूखे और बीमार भी थे। लेकिन, इन सारे अभावों के बावजूद सबके पास मोबाईल फोन था, कुछ के पास तो इंटरनेट भी था। बेसिक से लेकर अच्छे ब्रांड का भी फोन था, यह अलग बात है रास्ते में इमरजेंसी नम्बरों ने भी उनकी प्रार्थना को अनसुना कर दिया था। जगह- जगह उनकी मुलाकात पुलिस से हुई, कहीं सहयोग मिला तो कहीं रास्ता नापने की हिदायत। अब सवाल यह है कि उन्नत तकनीक के इस युग में देश की सरकारों को ये मनुष्य क्यों नहीं दिख रहे और दिख रहे हैं तो उनकी मदद क्यों नहीं हो रही ? जिस इंटरनेट का उपयोग सूचना और मनोरंजन के लिए हो रहा है उसका उपयोग जनसेवा [बिना प्रचार अर्थात कर्तव्य ] के लिए क्यों नहीं ?

भारत के इंटरनेट और मोबाइल एसोसिएशन की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक देशभर में 50.4 करोड़ सक्रिय इंटरनेट उपयोगकर्ता हैं, जिनमें से 22.7 करोड़ गांव-देहात में हैं और 20.5 करोड़ शहरी क्षेत्र में हैं। ये आंकड़े बीते साल नवंबर महीने तक के हैं। इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि पिछले साल मार्च से हर रोज इंटरनेट इसरेमाल करनेवाले लोगों की संख्या में तीन करोड़ करोड़ की बढ़ोतरी हुई है। इस बात से सारा देश अवगत है कि देश की इस तकनीकी उपलब्धि का सबसे बड़ा लाभ जिन लोगो ने उठाया, वे आज इस तकनीक का इस्तेमाल भूल गये है या उन मतलब अर्थात चुनाव आसपास नहीं हैं।

इन तथ्यों से भारत की एक और तस्वीर उभरती है कि सस्ती दरों पर मोबाईल फोन और डेटा उपलब्ध होने तथा लोगों की क्रय करने की प्राथमिकता बदली हैं। रोटी, कपड़ा, मकान से पहले मोबाईल आ गया है। सोशल मीडिया के बढ़ते चलन तथा बैंकों और सरकारी विभागों द्वारा कामकाज को डिजिटल बनाने का सकारात्मक असर भी हुआ पर उसका लाभ समूचे समाज को नहीं मिला। केंद्र और राज्य सरकारों की अनेक कल्याणकारी योजनाओं के लाभ जैसे खाते में अनुदान, भत्ते आदि का भुगतान तथा खेतिहरों को उपयोगी सूचनाएं देने जैसी पहलों ने भी लोगों को मोबाइल और इंटरनेट को अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया है। इसमें उपयोग हो रही तकनीक से कुछ और न भी हो चिलचिलाती धूप में घर लौट रहे लोगों ग्लोबल पोजशनिंग सिस्टम से खोज कर राहत तो दी ही जा सकती थी।

इस तकनीकी प्रगति की समस्याओं का समाना भी प्रवासियों ने किया इनका संज्ञान लेना आवश्यक है- एक, डेटा सस्ता होने के बावजूद ग्रामीण क्षेत्रों में उसे कम खर्च करने की प्रवृत्ति तथा दूसरा, इंटरनेट की स्पीड में कमी।शहरों में बेहतर इंटरनेट के बावजूद अनसुनी। पहले कारण से बात नहीं होती थी दूसरे में शहरी सम्प्रभु सुनते नहीं थे। सेवा मुहैया करानेवाली कंपनियों को इन कमियों को दूर करने की कोशिश करनी चाहिए। उम्मीद है कि उपयोगकर्ताओं की संख्या बढ़ने से कंपनियां भी इस ओर ध्यान देंगी। सस्ते डेटा और मोबाइल ने आमदनी आधारित दरार को बहुत हद तक पाट दिया है। शिक्षा और रोजगार के साथ भी अब तकनीक का जुड़ाव बढ़ता जा रहा है।

इस दुष्काल में इस तकनीक का सबसे ज्यादा प्रयोग हो सकता था। अपने घर के लिए पैदल निकल पड़े आपदा के मारों की बेहतर मदद हो सकती थी। समाज भोजन, पानी, पदत्राण[ फुट वियर]की व्यव्व्स्था कर रहा है। सरकारे और इंटरनेट तकनीक के सहारे वोट जुटाने वाले तो समर्थ है उनके हाथो की लम्बाई भी ज्यादा है, परन्तु वे सच्चे झूठे प्रचार को ही जनसेवा मानते हैं। भोपाल में कल महिला मित्र आशा मिश्रा ने प्रयोग पश्चात सामग्री सडक पर कष्ट दायक यात्रा कर रहे भारत को सौपने की अपील की। जो बन सका किया। दान के बारे में उक्ति है एक हाथ से किये दान का दूसरे हाथ को पता नहीं लगना चाहिए। काश ! बड़े हाथों वालों के मन बड़े होते।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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