बजट से पूर्व जनमत कराएँ, तो “बदलाव का वक्त” नजर आएगा | EDITORIAL by Rakesh Dubey

16 मार्च से मध्यप्रदेश विधानसभा का बजट सत्र  शुरू होने की सूचना है। इस सत्र में हमेशा की तरह सरकार अपना बजट पेश करेगी। सरकारी खाली खजाने का राग अलापती, कमलनाथ सरकार “वक्त है बदलाव” के नारे के साथ आई थी आज उससे, जनता का सवाल है उसने क्या बदलाव किये ? इस सवाल का जवाब वैसे तो बजट के पूर्व आना चाहिए, पर राज्य हो या केंद्र कोई सरकार ऐसा नहीं करतीं। प्रजातंत्र में प्रजा [जनता] सर्वोपरि है, का राग गाने वाले राजनीतिक दलों ने आज तक कभी जनता से यह नही पूछा कि जनता कैसा बजट चाहती है? टैक्स जनता देती है और उससे खर्च करते समय कोई यह तक नहीं पूछता कि “जनता तुझे क्या चाहिए ?” कुछ पश्चिमी देशो में बजट से पूर्व जनमत संग्रह किया जाता है और सरकारें जनमत की मंशा के अनुरूप बजट बनती और कर निर्धारण करती हैं। मध्यप्रदेश में भी ऐसा होना चाहिए। वर्तमान में सरकारी मनमर्जी से बजट बनते हैं, ये पद्धति ठीक नहीं है।

सुनने में आ रहा है कि केंद्र की तरह मध्यप्रदेश सरकार का आगामी बजट में गरीब,किसानों, छोटे व्यपारियों और आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के लिए बड़ा ऐलान कर सकता है। अभी कई योजनायें धन के अभाव में घोषणा तक ही सीमित हैं। मुख्यमंत्री कमल नाथ कह चुके हैं कि उनका “वचन पत्र पांच साल का है इतनी जल्दी सब पूरा कैसे कर  सकते हैं?” सरकार के रवैये से जनता के साथ कांग्रेस के कुछ बड़े नेता भी नाराज़ है वे सडक पर उतरने के धमकी दे रहे हैं। मुख्यमंत्री ने इस चुनौती को स्वीकार कर लिया है। मुख्यमंत्री जी बजट के मामले में जनता की आस आपका बदलाव का नारा सब शामिल है, बेहतर होता बजट बनाने से पूर्व जनमत का नया प्रयोग इस बदलाव की बयार में किया जाता। वैसे यह नया सुझाव है, इसकी पृष्ठ भूमि में देश और प्रदेश वर्तमान आर्थिक पृष्ठ भूमि है। एक नया सर्वेक्षण  सामने आया है कि आर्थिक स्थिति, कीमतों और पारिवारिक आमदनी को लेकर लोगों का रुख पिछले साल की तुलना में कमजोर है।

अर्थव्यवस्था में कमजोरी के मौजूदा दौर से उबरने के लिए उपभोग में बढ़ोतरी करना बहुत जरूरी है, लेकिन ऐसा कर पाना एक बड़ी चुनौती से कम नहीं  है| रिजर्व बैंक के ताज़ा सर्वे के मुताबिक उपभोक्ताओं की मनोदशा निराशा से ग्रस्त है और हालत यह कि. यह निराशा मार्च, २०१५ के बाद से सबसे उच्च स्तर पर है। निराशा का यह सूचकांक जनवरी में ८३.७ तक आ गया है। सरकार को सोचना चाहिए। इसमें १००  की संख्या निराशा व आशा के बीच के विभाजन को इंगित करती है। देश के १३  बड़े शहरों के परिवारों के सर्वेक्षण के आधार पर बैंकों का कहना है कि आर्थिक स्थिति, कीमतों और पारिवारिक आमदनी को लेकर लोगों का रुख पिछले साल की तुलना में कमजोर है तथा वे जरूरी चीजों के अलावा अन्य खरीद पर कम खर्च कर रहे हैं। इसका नकारात्मक असर उत्पादन पर भी पड़ा है और कंपनियां इसमें कटौती कर रही हैं। यह सब इस बात को प्रमाणित करती है कि कुल मिला कर हमारी अर्थव्यवस्था के विस्तार की गति २००९ के बाद सबसे कम है। इन आंकड़ों के साथ अगर बचत में कमी को भी रख लें, तो अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने और उसे तेज गति देने से जुड़ी आशाएं कुछ कमजोर पड़ती दिखाई दे रही हैं।

यह बात वैसे भी न्यायसंगत नहीं है कि जिससे टैक्स ले रहे हो क्या उसे यह जानने का अधिकार नही है, उससे लिया जा रहा धन कैसे खर्च हो रहा है ?  होना तो यह चाहिए सरकार किस भी बड़ी घोषणा के पूर्व “जनमत संग्रह” कराए। मध्यप्रदेश में की मदों में टैक्स सबसे ज्यादा है और टैक्सदाताओं की संख्या दिन प्रतिदिन बडी है। ऐसे में “बजट पूर्व जनमत संग्रह” जरूरी है। हर सरकार  को इस विषय पर सोचना जरूरी है। प्रजातंत्र का तकाजा भी यही है।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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