संसद और सड़क की आवाज़ में तालमेल ? | EDITORIAL by Rakesh Dubey

नई दिल्ली। नागरिकता संशोधन कानून को लेकर बहुत सारे स्पष्टीकरण आ गये हैं। समर्थन और आलोचना दोनों के बीच प्रतिद्वंदिता चल रही है। संसद में बने कानून की सडक पर व्याख्या हो रही है। लोकतांत्रिक देश में संसद व सड़क की आवाज के बीच भी एक तालमेल हो। जिसका माध्यम पक्ष और प्रतिपक्ष की आपसी समझदारी और सजगता हो सकती है। राजनीति से ऊपर देश और उसमें शांति होना चहिये। 

सत्ता प्राप्त करना और सुचारू शासन चलाना हर दल की अभिलाषा होती है, परन्तु राजनीतिक दल को यह नहीं मान बैठना चाहिए, संसदीय प्रक्रियाओं में चुने हुए जन-प्रतिनिधि और विभिन्न वैचारिक राजनीतिक समूह ही पूरे समाज व देश के प्रतिनिधि हैं। व्यक्तियों का विचार और दृष्टिकोण बनता-बदलता रहता है। देश के नागरिक पशोपेश में हैं आज वे न तो बहुमत के आधार पर बनी सरकार को दरकिनार कर सकते हैं, और न आम जिंदगी की उथल-पुथल और अंतर्विरोधों से जुड़े आंदोलनों की अनदेखी कर सकते हैं।

अब नागरिको के विशेषकर भारत के मौजूदा नागरिकों के सड़कों पर होने वाले सार्वजनिक आचरण का सवाल आता है। देश की संविधान सभा के अनुभवी संविधान सदस्यों ने हमें कुछ बुनियादी अधिकारों के काबिल एक लम्बी प्रक्रिया और अध्ययन के बाद माना है। इसमें शिक्षा, आयु, वर्ग, लिंग, भाषा और धर्म में से किसी को भी बाधक बनने से रोका गया है। फिर हम में से कुछ, बिना विचारे क्यों उबल पड़ते हैं? नागरिकता के अधिकारों में ही नागरिकता के कर्तव्यों का बहुत जरूरी हिस्सा शामिल होता है। पिछले एक पखवाड़े में सडक पर हुए विरोध में चंद लोग अपना कर्तव्य भूल गये, यह कृत्य इस बात का प्रमाण है कि आपके जीवन का नागरिक शास्त्र कही गलत दिशा में जा रहा है।

आज़ादी के बाद नए भारत के निर्माण में मूल तत्व सत्य और अहिंसा ही स्थापित हुआ है । तब हिंसावादी धाराएं भी थीं, उन्हें तब भी तरजीह नहीं मिली । 1857 की पहली कोशिश की भयानक विफलता और लगभग आधी शताब्दी के आत्ममंथन के बाद हमारे देश के नायकों व लोगों ने सुसंगठित प्रतिरोध, विशेषकर असहयोग और अहिंसक आंदोलनों के रास्ते से बंगाल विभाजन से लेकर चंपारण और जलियांवाला बाग से होते हुए भारत छोड़ो आंदोलन ने जिस राजनीतिक-संस्कृति रचना की उसी से ये दोनों तत्व निकल कर आये हैं । राजनीतिक दलों को याद रखना चाहिए कि सत्ता पक्ष और प्रतिपक्ष के अलावा एक तीसरा पक्ष तटस्थ नागरिक समाज भी होता है।

कुछ लोग अपनी बात को अलोकतांत्रिक रास्ते की ओर अर्थात हिंसा से लेकर संगठित आतंक तक मोड़ देते हैं, तो न्याय की मांग और लोकतांत्रिक आधार पर हित-रक्षा का आंदोलन कमजोर होने लगता है। अत्यंत निर्मल आदर्शवाद के बावजूद अपने दावे को मजबूत करने के लिए सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने या सत्ता-प्रतिष्ठान से जुड़ी नौकरशाही, सत्ताधीशों या न्यायपालिका को आतंक या अराजकता के बल पर अपने दावों को कुबूल करने के लिए विवश करने की रणनीति ऐसे अभियानों को व्यापक लोकतांत्रिक मर्यादाओं से अलग कर देती है।

यह एक प्रमाणित बात है जब जनांदोलन से जुड़े लोग लोकतांत्रिक लक्ष्मण रेखा लांघते हैं, तब सत्ता-प्रतिष्ठान को हर तरह की बर्बरता की छूट मिल जाती है। इसीलिए शुरू से आखिरी तक शांतिपूर्ण बने रहना एक असरदार प्रतिरोध की बुनियादी शर्त है। अगर किसी सभा में वक्ताओं की तरफ से भाषायी हिंसा होने लगे या किसी सार्वजनिक प्रदर्शन में निर्दोष लोगों को आतंकित किया जाना शुरू हो जाए या सार्वजनिक संपत्ति को क्षति पहुंचाने की हरकतें होने लगें, तो उस अभियान या आंदोलन के आयोजकों को समझ लेना चाहिए कि वे एक बेलगाम हो रहे घोड़े पर सवार हैं। ऐसे में अगर घोड़े की लगाम हाथ भी जाती है, तो सबसे पहले सवार ही धराशायी होता है। कई उदहारण हैं|

लोकतंत्र की सबसे बड़ी जरूरत यही होती है कि हम अपने अधिकारों की मांग से पहले कर्तव्य समझें । जिस तरह से आंदोलनकारियों द्वारा अलोकतांत्रिक तरीकों से अपनी मांगों को मनवाना अनुचित है, उसी तरह सत्ता-प्रतिष्ठान के लिए अहिंसक और शांतिपूर्ण नागरिक समूहों के खिलाफ लाठी-गोली की पद्धति का इस्तेमाल साबित करता है की सरकार का सम्वाद नागरिकों से समाप्त हो गया है |

गांधी जी फिर याद आते हैं- “ हर आदमी अपने हक की बात करने से पहले अपना फर्ज अदा करें |”-हरिजन सेवक ६ ७ ४७ | सरकार, पक्ष प्रतिपक्ष और नागरिक सभी इस बात को समझें, यही राष्ट्रहित है.
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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