वर्तमान राजनीति और हमारा संविधान | EDITORIAL by Rakesh Dubey

नई दिल्ली। और महाराष्ट्र में गठ्बन्धन सरकार बन गई, पूरे देश में एक राजनीतिक उथल-पुथल के साथ। जब यह सब हो रहा था, देश संविधान को भी याद कर था, महाराष्ट्र में संविधान से इतर नामों से शपथ ली गई। कुछ पूर्वज हमारे आदर्श हो सकते हैं, पर जीवित व्यक्तियों की शपथ? यदि देश का संविधान सजीव होता या उसे बनाने वाले मौजूद होते तो तो क्या ऐसा हो सकता था? एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। महाराष्ट्र में चुनाव पूर्व गठबंधन, चुनाव के पश्चात की सौदेबाजी और मेल-बेमेल गठबंधन पर आक्षेप, आरोप-प्रत्यारोप के रंग उभरे। 

यह सब नया नहीं है, 2005 में भी बिहार में राष्ट्रपति शासन रात के तीन बजे लागू कर दिया गया, तब भाजपा ने इसे लोकतंत्र की हत्या कहा था। अब जब महाराष्ट्र में रात के अंधेरे में सरकार गठन की कोशिश हुई और सूर्य की पहली किरण से भी पहले नई सरकार की घोषणा हो गई तब विरोधी दलों ने भी यही सब कहा। इसी मध्य 26 नवंबर को भारत में संविधान दिवस मनाया गया। 26 नवंबर को संविधान दिवस था। अब सवाल यह है कि क्या ऐसी सरकारें लोगों को संविधान में वर्णित कर्तव्यों के प्रति जागरूक कर पाएंगी, जिनका खुद विश्वास संविधान में औपचारिक भर है। सरकारें जनता के कर्तव्यों को गिना देती है। जिसमें संविधान का पालन, राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगान का आदर, सभी देशवासियों में समरसता की भावना का विकास, पर्यावरण शुद्ध रखना आदि हैं, पर सरकार के अपने काम कितने संवैधानिक होते हैं यह सब जानते हैं। भोपाल में विधायकों के लिए बना रहा नया रेस्ट हाउस, स्मार्ट सिटी और उसके नाम पर हो रहा पर्यावरण विनाश सबको खुली आँखों से दिख रहा हैं।

सवाल यह है कि जो संविधान की शपथ लेकर लोकतंत्र के मंदिरों में पहुंचते हैं, सांसद, विधायक और मंत्री बनते हैं तथा अन्य संवैधानिक पदों की शोभा बनते हैं, वे सब संविधान को कितना जानते हैं। वे शपथ तो ले लेते हैं , लेकिन संविधान में क्या लिखा है। जानते नहीं या जानबूझकर उसका निरादर करते है। संविधान की शपथ लेकर कोई भी पद ग्रहण करने वालों में से शायद ही दो-चार प्रतिशत लोग ऐसे होंगे जो जानते हैं कि संविधान में क्या निर्देश दिए गये हैं? सिर्फ कुछ जातिवादी नेता संविधान के आधार पर अपनी जाति के लिए अधिकार, आरक्षण, नौकरियां मांग तक इसे सम्पूर्ण मान लेते हैं | संविधान निर्माताओं ने इसे किस भाव से लिखा, संविधान की आत्मा क्या है? उनका मतलब राजनीतिक हित साधने तक ही रहता है।

सर्वश्रेष्ठ शासन प्रणाली लोकतंत्र केवल वोट तंत्र तक सीमित होकर रह गई है। जिस दिन मतदाता लंबी-लंबी कतारों में गर्मी-सर्दी सहते, जिंदाबाद-जिंदाबाद करते मतदान करते हैं, उस दिन तो यही लगता है कि लोग अपनी सरकार चुनने जा रहे हैं। लोकतंत्र की जड़ें मजबूत हो रही हैं, पर जानने वाले भी जानबूझकर आंखें मूंद लेते हैं कि इन लाइनों में लगने के लिए पचास प्रतिशत से अधिक मतदाता किन रास्तों को पार करके यहां तक पहुंचे हैं। वे मतदाता जिस अपना नेता बनाते हैं, । संभव है वह दल बदलकर या किसी अन्य लालच में कहीं और चला जाये |यह एक नग्न सत्य है कि चुनावों के बाद जो गठबंधन होते हैं, वे स्वार्थ, सत्ता लिप्सा और परिवारों को राजनीति के गलियारों में सुरक्षित स्थान दिलवाने के लिए किए जाते हैं।

कभी हमारे देश में साधनों की शुचिता पर ध्यान दिया जाता था, साध्य गौण था। आज साध्य सत्ता हो गई, साधन कितने भी बेईमान क्यों न हो जाएं। बेशर्म नेता तो यहाँ तक कहते हैं कि चुनाव, युद्ध और प्यार में सब जायज है। पिछले अनेक घपले-कारनामे, घोटाले उन सबसे छुटकारा पाने का मन्त्र हो गया कि दल बदलो और सुविधा के स्थान पर पहुंच जाओ। विधानसभा संसद में चमचमाते, मुस्कुराते और दलबदलू चेहरों को देखकर वितृष्णा होती है। अब आवश्यकता यह है कि भारत के लोकतंत्र के स्वामी मतदाता अपने प्रतिनिधियों को जांच परखकर चुनें और अगर वे दल बदल लें तो उनका सामाजिक बहिष्कार तो करें | जो व्यक्ति चुनाव लड़े, पहले उसकी परीक्षा तो हो जाए कि वह संविधान को कितना जानता है, और उसकी आस्था संविधान में कितनी है।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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