सरकार के कीर्ति मुकुट में मंदी की बदरंग कलगी | EDITORIAL by Rakesh Dubey

नई दिल्ली। केंद्र सरकार के कीर्ति मुकुट में राजमार्ग बनाने, बिजली की परिस्थिति सुधारने और सुशासन स्थापित करने की लगी कलगियों के साथ बदरंग मंदी की कलगी भी खुसी हुई है। देश में बदरंग मंदी गहराती जा रही है। इसके गहराने के कुछ कारण हैं जिनमें सबसे बड़ा है कि सरकार ने वित्तीय घाटे पर नियंत्रण करने की पूर्व की नीति को जारी रखा है। 

इस नीति का मूल आधार यह है कि यदि भारत का वित्तीय घाटा नियंत्रण में रहेगा तो विदेशी निवेशकों को हमारी अर्थव्यवस्था पर भरोसा बनेगा, वे हमारे देश में उसी प्रकार निवेश करेंगे जैसा उन्होंने चीन में किया था, भारत में मैनुफैक्चरिंग बढ़ेगी, रोजगार बढ़ेंगे, हमारे निर्यात बढेंगे और हम उसी प्रकार आर्थिक विकास को हासिल कर सकेंगे जैसा चीन ने किया था। इस सोच में समस्या यह है कि चीन में जब इस फार्मूला को लागू किया था उस समय वैश्विक अर्थव्यवस्था की परिस्थिति बिलकुल भिन्न थी और आज बिलकुल भिन्न है।

रोबोट से मैनुफैक्चरिंग करने का सीधा प्रभाव यह पड़ा कि चीन और भारत के सस्ते श्रम का जो लाभ था वह छूमंतर हो गया। क्योंकि कुल उत्पादन लागत में श्रम का हिस्सा कम हो जाता है। इसलिए बहुराष्ट्रीय कम्पनियां आज भारत जैसे विकासशील देशों में फैक्ट्री लगाने को उत्सुक नहीं हैं। अत: हमारे द्वारा वित्तीय घाटे को नियंत्रण करने से विदेशी निवेश नहीं आ रहा है और यह रणनीति फेल हो रही है।वित्तीय घाटे पर नियंत्रण करने की नीति को भी सही तरह से लागू नहीं किया गया है। सरकार बाजार से अपनी आय से अधिक खर्चों को पोषित करने के लिए जो ऋण लेती है उसे वित्तीय घाटा कहा जाता है। ये खर्च निवेश के रूप में खर्च किये जाते हैं अथवा खपत के रूप में, इससे वित्तीय घाटे पर कोई अन्तर नहीं पड़ता है। बीते समय में सरकार ने वित्तीय घाटे पर जो नियंत्रण किया है उसके लिए सरकार ने अपने निवेश अथवा पूंजी खर्चों में भारी कटौती की है।

सरकार द्वारा किये गए निवेश और खपत का अर्थव्यवस्था पर बिलकुल अलग-अलग प्रभाव पड़ता है। सरकार यदि ऋण लेकर हाईवे बनती है तो बाजार में सीमेंट, स्टील और श्रम की मांग बनती है और यह अर्थव्यवस्था के गुब्बारे में हवा भरने सरीखा काम करती है। इसके विपरीत यदि सरकार की खपत में वृद्धि होती है तो यह मूल रूप से सरकारी कर्मियों के वेतन में वृद्धि के रूप में होती है। सरकारी कर्मियों द्वारा अपने वेतन का एक बड़ा हिस्सा या तो सोना खरीदने में, विदेश यात्रा करने में या फिर विदेश के आयातित माल की खपत करने में व्यय हो जाता है। वह रकम देश की अर्थव्यवस्था में घूमने के स्थान पर बाहर चली जाती है। सरकारी खपत पूर्ववत रहने से हमारी अर्थव्यवस्था की स्थिति उस गुब्बारे जैसी है जिसकी हवा धीरे-धीरे निकल कर विदेश जा रही है। 

मंदी तोड़ने के लिए सरकार को वित्तीय घाटे पर नियंत्रण की नीति पर पुनर्विचार करना होगा। वित्तीय घाटे को बढ़ने देना चाहिए लेकिन लिए गए ऋण का उपयोग निवेश के लिए करना चाहिए न कि सरकारी खपत को पोषित करने के लिए। सरकार यदि निवेश करेगी तो सीमेंट और स्टील की मांग उत्पन्न होगी, घरेलू निवेशक सीमेंट और स्टील की फैक्ट्री लगाने में निवेश करेंगे और बिना विदेशी निवेश के हम आर्थिक विकास को हासिल कर सकेंगे। 
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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