देश में कानून व्यवस्था के सवाल | EDITORIAL by Rakesh Dubey

नई दिल्ली। सारे देश में बढ़ते अपराध नागरिकों के बीच असुरक्षा का बोध पैदा कर रहे है। देश की बढ़ती आबादी और बढ़ते अपराध को देखते हुए कुछ लोग उच्च न्यायालय में भी गये, न्यायालय की टिप्पणी अत्यंत गंभीर है | दिल्ली हाईकोर्ट में चीफ जस्टिस डीएन पटेल और जस्टिस हरिशंकर की पीठ ने बड़ी मौजूं टिप्पणी की, उन्होंने 'हम अपने जजों के स्वीकृत पदों को तो भर नहीं पा रहे हैं। पुलिस की भारती के कहां से आदेश दें। हालांकि, पीठ ने आगे कहा कि पुलिसकर्मियों को पर्याप्त और उचित प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। इस याचिका से पुलिस बल की स्थिति में कितना सुधार आता है और अपराध पर किस हद तक अंकुश लग पाता है, यह तो बाद में ही पता चलेग समूचे देश में पुलिस सुधार और अपराध नियंत्रण होता है। सच में पुलिस में सुधार और प्रशिक्षण की गुंजाईश है। गृहमंत्रालय की एक रिपोर्ट आई है जो देश में पुलिस के 5.28 लाख पद खाली पड़े होने की सूचना देती हैं। रिपोर्ट कहती है कि पद तो स्वीकृत है, पर पुलिसकर्मियों की भर्ती नहीं हुई है। 

इस विरोधाभासी चित्र को देखिये, एक ओर बेरोजगारी के बढ़ते आंकड़े दिखते हैं, दूसरी ओर स्वीकृत पद भी खाली पड़े हैं। पुलिस बल की कमी से सबसे ज्यादा जूझने वाले राज्यों में उप्र सबसे अव्वल है, इस के बाद दूसरे नंबर पर बिहार, तीसरे नंबर पर पश्चिम बंगाल और चौथे नंबर पर तेलंगाना राज्य है। वैसे इन सबसे खराब स्थिति पूर्वोत्तर राज्य नगालैंड की है। यहां स्वीकृत पदों के मुकाबले मात्र 4.43 प्रतिशत पुलिस बल ही उपलब्ध है। संयुक्त राष्ट्र के मानक के अनुसार प्रति लाख नागरिक पर 222 पुलिसकर्मी होने चाहिए, लेकिन भारत में यह आंकड़ा 144 ही है। यह संख्या भी केवल कागजों पर है, हकीकत में तो यही नजर आता है| पुलिसकर्मियों को वीआईपी ड्यूटी में तैनाती होती है, और आम जनता का सुरक्षित रहने का हक लगातार मारा जा रहा है। यह कितनी विडंबना है कि हम अपने ही देश में बेखौफ, बेखटके नहीं घूम सकते हैं। रात या दिन की परवाह किए बिना बाहर नहीं निकल सकते हैं। लड़कियों के लिए स्थिति और खराब हैं, वे कहीं भी सुरक्षित महसूस नहीं करती हैं। विकल्प के रूप में निगहबानी है, स्कूलों में, सार्वजनिक परिवहन साधनों में, सड़कों में, घरों में हर जगह आप सीसीटीवी लगा लीजिए, फिर भी माहौल सुरक्षित नहीं बनेगा,क्योंकि कानून का राज कमजोर पड़ता जा रहा है। लेकिन अपराध की दुनिया कुछ और जगमगा रही है।

संसद में वित्त वर्ष 2018-19 की आर्थिक समीक्षा में देश की अदालतों में जजों की कमी के कारण लंबित तीन करोड़ केसों पर चिंता जताई गई। समीक्षा में कहा गया कि पांच सालों में देश में केसों की प्रतीक्षा अवधि समाप्त करने के लिए 8519 जजों की जरूरत है। पिछले साल सितंबर में कानून मंत्रालय का आंकड़ा आया था, जिसके मुताबिक भारत में प्रति दस लाख लोगों पर केवल 19 जज हैं और देश में 6000 से ज्यादा जजों की कमी है| एक साल बाद स्थिति सुधरी नहीं है, बल्कि चिंता कुछ और बढ़ गई है। यद्यपि साल 2009 के बाद पहली बार सुप्रीम कोर्ट में 31 जजों की पूरी संख्या है। 1 जुलाई, 2019 तक विभिन्न हाईकोर्ट में 403 जजों के पद पद खाली हैं। पुलिस के रिक्त पद लाखों में है | दिल्ली हाईकोर्ट की टिप्पणी वास्तव में लचर कानून व्यवस्था का चित्र पेश करती है। कानून और व्यवस्था महत्वपूर्ण विषय है केंद्र और राज्य सरकार दोनों को इसे गंभीरता से लेना चाहिए |
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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