बैंक : सिर्फ पूंजी नहीं, इस ढर्रे को बदलिए | EDITORIAL by Rakesh Dubey

नई दिल्ली। केंद्र सरकार ने सरकारी बैंकों को फिर से पूंजी देने का निर्णय किया है. इस निर्णय के यूँ तो तो कई प्रभाव होंगे। सबसे बड़ा सवाल और प्रभाव यह होगा कि सूखते बैंकों को राहत मिलेगी और उनने अपना ढर्रा नहीं बदला तो कुछ और सरकार कोअगले चुनाव के पहले सोचना होगा| यूँ तो सरकार ने बजट में सरकारी बैंकों में पुनर्पूंजीकरण के लिए 70000 करोड़ रुपये का प्रावधान करके सारे वित्त बाजार को चौंका दिया है । वित्त बाजार को इस मद में 40000 करोड़ रुपये के आवंटन की आशा थी। किस बैंक को कितनी राशि मिलती है, इस आधार पर अतिरिक्त पूंजी का इस्तेमाल इन बैंकों द्वारा वृद्धि पूंजी के रूप में किया जा सकेगा।

बजट भाषण में कहा कि बैंकिंग क्षेत्र का फंसा हुआ कर्ज कम हुआ है और ऋणशोधन अक्षमता एवं दिवालिया संहिता के कारण सुधार हो रहा है। यह भी कहा गया कि बैंकों के ऋण प्रवाह की स्थिति में सुधार हो रहा है। भारतीय रिजर्व बैंक की ताजा वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट के अनुसार फंसे हुए कर्ज का काफी हिस्सा चिह्नित किया जा चुका है और ऐसा प्रतीत होता है कि अब यह चक्र बदल रहा है। वैसे सरकारी बैंकों को अभी भी फंसे हुए कर्ज की स्थिति को पूरी तरह नियंत्रण में लेने में समय लग सकता है क्योंकि वह 12 प्रतिशत से अधिक है।

लाख टके सवाल यह है कि क्या नए सिरे से पूंजी डालने के बाद सरकारी बैंकों में हालात बदलेंगे? सरकारी बैंकों के नजरिये से देखा जाए तो फंसे हुए कर्ज को चिह्नित करने, उसका निस्तारण करने और पुनर्पूंजीकरण करने, आदि स्थितियों में सुधार हुआ है लेकिन चौथा घटक यानी सुधार अभी भी नदारद है। अगर व्यापक सुधारों की शुरुआत नहीं की गई तो पुनर्पूंजीकरण के लिए धन की जरूरत पड़ती रहेगी। यह भी तय है कि परिसंपत्ति गुणवत्ता की समस्या केवल झूठे आशावाद और कारोबारी जगत की अतिशय उधारी की देन नहीं है बल्कि ऐसा इसलिए भी है क्योंकि बैंक,खासतौर पर सरकारी बैंक जोखिम का सही आकलन करने में तब चूकते रहे और भविष्य में ऐसी चूक राष्ट्रहित में नहीं है |

सही अर्थों में सरकारी बैंकों की परिचालन किफायत सुधारने के लिए सरकार को कई स्तरों पर काम करना होगा। जैसे सरकारी बैंकों को केंद्रीय बैंक और वित्त मंत्रालय के दोहरे नियंत्रण से मुक्त करना होगा। उनका नियमन निजी क्षेत्र के बैंकों की तरह करना होगा। इससे अहम यह है कि सरकारी बैंकों के बोर्ड पेशेवर हों और उनको परिचालन में पूरी स्वतंत्रता हासिल हो। इससे उनको अधिक जवाबदेह बनाने में मदद मिलेगी। सरकारी बैंकों को मानव संसाधन प्रबंधन के क्षेत्र में भी सुधार करने की आवश्यकता है। बैंकों में वेतन भत्ते बाजार और प्रदर्शन दोनों से संबद्ध हों। इससे सरकारी बैंकों को सही लोगों को चुनने में मदद मिलेगी। कारोबार और वित्त जगत की बढ़ती जटिलता के दौर में बैंकों को विशिष्ट कौशल वाले लोगों की आवश्यकता है, तभी वे जोखिम का प्रबंधन कर सकेंगे।

वैसे सरकार के लिए इन सुधारों को लागू करना आसान नहीं, मुश्किल भरा है। सार्थक बदलाव तभी हो पायेगा जब बैंकों में सरकारी हिस्सेदारी कम हो। देश के राजकोषीय हालात की बात करें तो सरकार को सरकारी बैंकों के बारे में निर्णय लेना होगा। बजट की सीमा सरकार को इन बैंकों के ज्यादा पुनर्पूंजीकरण की इजाजत नहीं देगी और पुनर्पूंजीकरण बॉन्ड का नियमित इस्तेमाल देश के राजकोषीय प्रबंधन में भरोसा खत्म करने का काम करेगा। सरकार अब विदेशों से ऋण लेने की योजना बना रही है इसलिए बढ़ी हुई जवाबदेही और कमजोर सरकारी बैंक, भारतीय बॉन्ड और रेटिंग पर दबाव बना सकते हैं।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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