रुष्ट माया और युवा नेतृत्व पर प्रश्नचिंह | EDITORIAL by Rakesh Dubey

नई दिल्ली। लोकसभा चुनाव 2019 हारे हुए तमाम दल शिकस्त के कारण तलाश रहे हैं, वे खोज रहे हैं कि वो सिर किसका हो, जिस पर हार का ठीकरा फोड़ा जा सके। आम आदमी पार्टी, जेडीएस, तृणमूल कांग्रेस, राजद, सपा, बसपा, (Aam Aadmi Party, JDS, Trinamool Congress, RJD, SP, BSP) सभी हैरानी-परेशानी में है कि आखिर उनकी रणनीति में कहां चूक रह गई। कुछ विचार में हैं, कुछ समाधि में पर बहिन जी यानी मायावती दनादन फैसले ले रही हैं। 

लोकसभा चुनाव परिणाम (Lok Sabha election results) से नाखुश मायावती ने जिम्मेदार लोगों पर कार्रवाई शुरू कर दी है। बड़े पार्टी नेताओं की बैठक से पहले ही मायावती ने छह राज्यों के लोकसभा चुनाव प्रभारियों को हटा दिया है। इसके साथ ही उन्होंने तीन राज्यों के प्रदेश अध्यक्षों को भी पद से बेदखल कर दिया है। मायावती ने उत्तराखंड, बिहार, झारखंड, राजस्थान, गुजरात और ओडिशा के लोकसभा चुनाव प्रभारियों को हटाया है| इसके साथ ही उन्होंने दिल्ली व मध्य प्रदेश के बसपा अध्यक्षों को भी पद से बेदखल कर दिया है। वैसे बसपा ने इस बार के लोकसभा चुनाव में 2014 के मुकाबले भले ही बेहतर प्रदर्शन करते हुए 10 सीटें जीती हैं, लेकिन अपेक्षा के मुताबिक गठबंधन को कम सीटें मिली हैं।” गठ्बन्धन कीहर के परिप्रेक्ष्य में संगठन में फेरबदल का महत्वपूर्ण फैसला हो सकता है।

नतीजे आने के साथ ही मायावती के रडार पर उत्तर प्रदेश के 40 समन्वयक और जोनल समन्वयक आ गये थे, ये सभी सहमे-सहमे घूम रहे हैं, इन पर कभी भी गाज गिर सकती है| गौरतलब है कि 2012 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से बसपा का ग्राफ लगातार गिरता जा रहा है. हालत यह हो गई कि 2014 के लोकसभा चुनाव में बसपा खाता भी नहीं खोल सकी थी| इसके बाद 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में बसपा महज 19 सीटें ही जीत सकी थी| इस बार के लोकसभा चुनाव में सपा से गठबंधन के बावजूद बसपा मात्र 10 सीटें ही जीत सकी. बसपा अब, लोकसभा चुनाव के दौरान पार्टी विरोधी काम करने वालों के खिलाफ एक्शन मोड में आ गई है|

उत्तरप्रदेश और बिहार की राजनीति में इस शिकस्त से खासी हलचल मची हुई है। उत्तरप्रदेश में इस बार सपा-बसपा और रालोद ने गठबंधन किया था और कांग्रेस के लिए दो सीटें छोड़ने की सदाशयता दिखाई थी।सपा के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने चुनाव से पहले सीटों के बंटवारे में बसपा को पर्याप्त तवज्जो दी थी, जिसे लेकर उनके पिता और सपा संरक्षक मुलायम सिंह यादव भी खुश नहीं थे। भाजपा को हराने के लिए उनके समेत समाजवादी पार्टी के तमाम कार्यकर्ताओं ने अखिलेश के फैसले को मंजूर कर लिया। साथ में रैलियां हुईं, सभाएं हुईं, पोस्टरों में मायावती, मुलायम दोनों साथ नजर आए थे। इसे राजनीति में नया मोड़ माना जा रहा था। लेकिन जो नतीजे आए हैं, उसमें हार के बावजूद मायावती के लिए जीत है| जबकि अखिलेश यादव शायद छला महसूस कर रहे हैं । सपा को पांच सीटें हासिल हुई हैं। इसमें भी डिंपल यादव को हार का सामना करना पड़ा है।मायावती के साथ गठबंधन में भी अखिलेश यादव हारे हुए खिलाड़ी ही साबित हुए। कुल मिलाकर उनके नेतृत्व में समाजवादी पार्टी पिछड़ती गई है। और अब उनके सामने खुद को साबित करने के साथ अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं का विश्वास हासिल करना बड़ी चुनौती है। 

कमोबेश ऐसा ही हाल बिहार में तेजस्वी यादव का है।यह पहला चुनाव था, जिसमें लालू प्रसाद यादव प्रत्यक्ष उपस्थित नहीं थे। पार्टी को आगे बढ़ाने, गठबंधन सहयोगियों को चुनने, उनके साथ सीट बंटवारे पर समझौता करने से लेकर पार्टी और परिवार के भीतर एका बनाए रखने की अनेक जिम्मेदारियां तेजस्वी यादव पर थीं। बेशक उनके साथ उनकी मां राबड़ी देवी और बहन मीसा भारती खड़ी थीं, लेकिन बड़े भाई तेजप्रताप यादव की कभी रूठने, कभी मान जाने जैसी नासमझियों से राजद को काफी नुकसान हुआ।  इस पराजय ने बहुत से युवा नेताओं के राजनैतिक भविष्य पर भी सवालिया निशान खड़े कर दिए हैं।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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