पत्रकार : हम कत्ल भी हो जाते हैं, चुपचाप से | EDITORIAL by Rakesh Dubey

भोपाल। मध्यप्रदेश ही नहीं,पूरे देश में पत्रकार सुरक्षा अधिनियम की बात चल रही है | सरकार इसे कानूनी मकड़जाल में उलझाये रखना चाहती है | कभी पत्रकार – गैर पत्रकार की परिभाषा के नाम पर, कभी संस्थान में लगी पूंजी के नाम पर तो कभी कोई और हीला हवाला करके सरकार बचती रही है और बचती रहेगी | पत्रकारों के लिए अच्छे दिन कभी नहीं आयेंगे | कुछ लोग सरकारी आर ओ के मिलने को “अच्छे दिन” मान लेते हैं, इस हिसाब से मध्यप्रदेश में बुरे दिन हैं, आर ओ छांट-छांट कर दिए जा रहे हैं | हत्याएं पहले भी होती थी, अब भी होती हैं | अप्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष गाली-गलौज तब भी होती थी और अब भी होती है | तब भी पुलिस जाँच कर या बगैर जाँच किये खात्मा काटती थी अब भी काटती है | “वचन पत्र” और “संकल्प पत्रों” में यह विषय शोभा की सुपारी तब भी था और अब भी है |

आज़ादी के पहले समाचार पत्रों की शक्ल भाले की तरह होती थी |अब छाते की तरह हो गई है | कोई भी धंधेबाज़ सरकार पर रुतबा जमाने के लिए अपने काले-सफेद पैसे से अख़बार या चैनल खोल लेता हैं और हम श्रमजीवी नौकर हो जाते हैं | यह भी नहीं सोचते कि नियुक्ति पत्र, वेतन की निरन्तरता जैसे विषय महत्वपूर्ण है | काम के घंटे, अवकाश चिकित्सा और आगे पढने-बढने के अवसर कितने हैं | ७० साल बाद भी सारे प्रयासों के बावजूद इस उद्योग का अभी भी नियुक्ति पत्र देने और कहीं-कहीं तो वेतन देने के लाले पड़ जाते हैं | भूखे पेट काम करते सरस्वती पुत्र अब भी मौजूद हैं, जिनके फोटो दिखाकर कोई बिल्डर. शराब माफिया गुटकाबाज़ अपने काम निकालते रहते हैं | इन्होंने अभिव्यक्ति के छाते के नीचे अपने धंधों को छिपा रखा हैं |

अभिव्यक्ति की आवाज़ बुलंद करने वालों की आवाज़ घुटती रहती है | सरकार के श्रम विभाग की और से सब कुछ ठीक है, का प्रमाण पत्र की एवज में सेवा शुल्क नियमित वसूला जाता है | इस व्यवसाय का सबसे निचला पायदान अंचल में काम करने वाला संवाददाता होता है जिसे कोई वेतन नहीं मिलता और प्रबन्धन की जवाबदारी जैसे विज्ञापन का लक्ष्य, प्रसारण की चिंता भी उसके कर्तव्य का अंग होता है | हवा खाकर जिन्दा रहना मुश्किल है, तो उसे कुछ धंधे के साथ गोरख धंधा भी करना होता है | आंचलिक सम्वाददाता, पत्रकार गैर पत्रकार आदि के अधिकार के लिए लड़ने वीरों की जमात कभी सम्मान समारोह तो कभी यातायात अभिकरण जैसी भूमिका में नमूदार होती है | इस व्यवसाय में अपने घाव, अपने मांस से ही भरने का रिवाज़ है |

वेतन बोर्ड नामक एक संस्था सरकार हमेशा गठित करती है | इसकी सिफारिशें सुनने को बेहद अच्छी लगती हैं, पर लागू कराने में सरकार की अनिच्छा होती है | सन्गठन भी बयान तक सीमित हो गये हैं | पालेकर से अब तक कई वेज बोर्ड बने पर वेतन, संस्थान के मालिक या उनके “ब्लू आइड ब्याय” ही तय करते हैं | कोई बड़ा आन्दोलन होता नहीं, अधिक आंदोलित व्यक्ति या तो निकाल दिए जाते हैं या इतनी शर्मनाक परिस्थिति बना दी जाती है कि जिन्दा रहने के नौकरी छोड़ना ही विकल्प बचता है |

सरकार, सन्गठन और मालिक से लड़ने के लिए सहनशक्ति चाहिए | समाज साथ देता है कभी-कभी | अंतिम पायदान हत्या होती हैं, जिसकी जाँच पुलिस खात्मा लगाने के लिए करती थी और करती रहेगी | रोज घुटकर मरने से बेहतर एक दिन बेमौत मर जाना | जिंदाबाद ! अभिव्यक्ति की आज़ादी जिंदाबाद
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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