बैंकिग: सरकार ही कुछ करे | EDITORIAL by Rakesh Dubey

समस्याग्रस्त बैंकों को देखकर साफ हो रहा है कि भारतीय अर्थव्यवस्था या कहिए समाज में ही एक अस्थिरताकारी ताकत है, जिसके कारण बड़ा से बड़ा संकट भी उसे अस्थिर नहीं कर पाता। भारतीय बैंकों को इसी का लाभ मिल रहा है। अब प्रश्न सरकार विवेक और अर्थकौशल पर है कि वो बैंको के सामने खड़े अभूतपूर्व संकट को वह कैसे दूर करें?

सरकारी बैंकों इन दिनों नॉन परफॉर्मिंग एसेट्स की समस्या से जूझ रहे हैं। इसके बावजूद इनमें लोगों का विश्वास इसलिए बना हुआ है, क्योंकि ये सरकारी हैं और सरकार बुरे लोन से की समस्या से जूझ रहे इन बैंकों को अपने खजाने से समर्थन कर रही है। इसी सिलसिले में सरकार ने 5 बैंकों को 11 हजार करोड़ रुपये से भी ज्यादा धन उपलब्ध कराने की घोषणा की है। उन पांच बैंकों में पंजाब नेशनल बैंक भी शामिल हैं, जो मेहुल चौकसी और नीरव मोदी के कारण 10  हजार करोड़ रुपये से भी ज्यादा की चपत खा चुका है।

पिछले वित्तीय वर्ष में भी सरकार ने बैकों को एक लाख करोड़ रुपये की सहायता की थी। तब यह सवाल उठा था कि उन बैंकों की गैर जिम्मेदारी का खामियाजा टैक्स अदा करने वाली जनता क्यों भुगते? एक बार फिर सरकारी खजाने से उन्हें वित्त पोषित किए जाने के बाद इसी तरह के सवाल उठाए जा सकते हैं, लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि उन बैंकों में पैसा उन्हीं का जमा है, जो टैक्स भी देते हैं। अभी तो उन बैंको का पैसा डूबा है। यदि बैंक ही डूब गए, तो फिर उन लोगों का पैसा भी डूब जाएगा, जिन्होंने उनमें अपने पैसे जमा कर रखे हैं।

कोई भी सरकार अपने खजाने से बैंकों को लगातार पैसे नहीं दे सकती। उनकी समस्याओं का स्थायी हल ढूंढना होगा और उन्हें अपना संकट हल करने के लिए समय भी देना होगा। सरकारी खजाने से उन्हें धन देने के अलावा सरकार ने अन्य अनेक उपाय भी किए हैं। इसके लिए एक विशेष दिवालिया कानून भी बनाया है, जिससे बैंकों को कुछ राहत मिलती दिखाई पड़ रही है। भूषण स्टील से संबंधित मामले में पंजाब नेशनल बैंक को दिवालिया कानून का लाभ मिला भी और उसके बाद यह उम्मीद जगी थी कि बैंक एक साल के अंदर शायद अपना डूबा हुआ एक लाख करोड़ वापस पा लें।

एनपीए की समस्या से लगभग सभी सरकारी बैंक जूझ रहे हैं, लेकिन कुछ कमजोर बैंकों के सामने कुछ ज्यादा ही कठिनाइयां सामने आ रही हैं। इसलिए एक विकल्प यह भी है कि कमजोर और छोटे बैंकों को मजबूत और बड़े बैंकों में विलीन कर दिया जाय। केन्द्र सरकार ने इस दिशा में आगे बढ़ने का फैसला भी किया है और इसके लिए भारतीय रिजर्व बैंक को आगे की कार्रवाई करने को भी कहा है।

भारत की समस्या यह है कि कानून आसानी से लागू नहीं होते और कानूनी कार्रवाई तेजी से होने में भी अड़चनें आ जाती हैं। कानूनी लूपहोल का ही निहित स्वार्थ लाभ नहीं उठाते, बल्कि न्याय प्रक्रिया की सुस्ती का भी उन्हें फायदा होता है। यही कारण है कि जिस तेजी से बैंकों में फ्रॉड हो जाता है, उतनी तेजी से फ्रॉड करने वालों के खिलाफ कार्रवाई नहीं होती। दिवालिया कानून के रास्ते में भी इस तरह की समस्याएं देखने को मिल रही हैं।

विलय की दिशा में भारतीय रिजर्व बैंक और भारत की सरकार को फूंक फूंक कर कदम उठाना होगा। सही अध्ययन करना होगा कि विलय के कारण कहीं लाभ होने के बदले नुकसान तो नहीं हो जाएगा। कौन सा बैंक किस बैंक में विलीन किया जाए इसका निर्णय करने में समय लगेगा। यही कारण है कि यह कहने में जितना आसान लगता है, करने में उतना आसान नहीं है और इसमें दो साल से 5 साल तक लग सकते हैं।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
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