किसान से ‘टकराना’ और ‘टरकाना’, दोनों मंहगे | EDITORIAL

राकेश दुबे@प्रतिदिन। बचपन में सुनी कहानियों में भारत में कभी दूध की नदियाँ बहती थी सुना था अब सडक पर बहता दूध देखकर लगता है कि भारत में ही यह संभव है कि नाराज किसान अपने उत्पादन को सडक पर फेंक दे। राजनीति जो न कराए वो थोडा है। एक जून से किसान एक बार फिर हड़ताल पर हैं। इस बार उनके आंदोलन का कार्यक्रम लंबा है। 01 जून से 10 जून तक गांवबंदी, जिसमें आखिरी दिन भारत बंद की अपील भी की गई है। भाजपा और कांग्रेस दोनों के चुनावी घोषणा पत्र के केंद्र में रहने वाला किसान सडक पर है। “किसान पुत्र” ‘किसानों के मसीहा’ ‘कृषक हितैषी’ कहे जाने वाले मंत्री और मुख्यमंत्री सिर्फ भाषण दे रहे है, पता नहीं वे आन्दोलन के किस चरण का इंतजार कर रहे हैं। सरकार इस आन्दोलन को अपने रिटायर बाबुओं के माध्यम से निपटाना चाहती है। मूल समस्या से ध्यान भटकाना और अंतिम दिन पक्ष या प्रतिपक्ष का वोट बैंक बनाना ही इनका लक्ष्य और किसान की नियति बन गई है।

 इस आन्दोलन के पहले किसान संगठनों की ओर से जारी बयान में इस आन्दोलन अवधि में शहरों के लिए दूध, सब्जी और अन्य कृषि उपजों की सप्लाई बंद कर देने की बात कही गई थी। इस आह्वान का उतना तीखा असर अभी तक तो नहीं दिखाई पड़ा है, लेकिन कहीं-कहीं, खासकर पंजाब और राजस्थान के कुछेक शहरों में सब्जियों की किल्लत जरूर बताई गई है। सड़क पर बहता दूध और कुचले हुए टमाटर टीवी स्क्रीन पर दिखे। पिछले साल किसान प्रतिरोध को चर्चा में लाने का यह अच्छा तरीका साबित हुआ था, सो जहां-तहां इसको इस बार भी आजमाया गया है। रहा सवाल सरकारी रुख का तो मध्य प्रदेश के कृषि मंत्री ने आंदोलन शुरू होने से पहले ही अपने राज्य के किसानों को सुखी-संपन्न और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की नीतियों से संतुष्ट बताया है, जबकि हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने किसानों को बेकार की बातों पर ध्यान न देने की सलाह दी है। केंद्र सरकार की ओर से सचिव स्तर के एक अधिकारी ने किसानों की ज्यादातर मांगों को स्थानीय स्तर की बताते हुए इनके बारे में राज्य सरकारों से बात करने को कहा है और केंद्र से जुड़ी मांगों पर बाद में विचार करने का दिलासा दिया है।

 सरकार, किसान और नेता जानते हैं कि मौसम का मिजाज़ बदल रहा है एक बार बारिश शुरू हुई, फिर किसान सारा आंदोलन भूलकर खेत  में जुट जाएंगे और विरोध का अगला मौका आने तक २०१९  का आम चुनाव पार हो चुका होगा। भारत को किसानों का देश बताने और खेती के पेशे को महिमामंडित करने के बावजूद सरकारें ऐसे ही टालू तरीकों से किसानों के असंतोष से निपटती आ रही हैं, लेकिन इस बार किसानों की मांगें स्पष्ट हैं और केंद्र सरकार समय रहते बहुपक्षीय वार्ता की शुरुआत करके खेती-किसानी के मामले में एक अच्छी परंपरा की नींव रख सकती है। जो कोई सरकार या अब किसान हितैषी बनकर यहाँ-वहां घूमता प्रतिपक्ष करना नहीं चाहता है।

सारे किसान अवगत है कि कृषि उपजों की कीमत उन पर आई कुल लागत की डेढ़ गुनी करने की बात खुद भाजपा  ने अपने केंद्रीय चुनावी घोषणापत्र में कह रखी है। एक निश्चित अवधि में किसानों की आमदनी दोगुनी करने का आश्वासन भी स्वयं प्रधानमंत्री का दिया हुआ है। महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश में भाजपा सरकारों ने किसानों की कर्जमाफी भी की ही है। मध्यप्रदेश में राहत के असफल प्रयोग हुए हैं। आंदोलन पर उतरे किसान यही सब तो मांग रहे हैं। परन्तु यह सब हो क्यों नहीं रहा है ? सवाल से पहले उत्तर आता है, वोट बैंक की राजनीति। सरकार उनकी मांगें तुरंत पूरी नहीं करना चाहती , प्रतिपक्ष राजनीति चमकाने में लगा है। मामले को टरकाना या मंदसौर की तरह सीधे टकराव में जाना देश के लिए कई आर्थिक समस्याओं के बीच एक बड़े संकट को न्यौता देना होगा।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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