
इस बात से आश्वस्त होते हुए कि अब एक मुखर नीति ही इस दिशा में कारगर होगी, दिल्ली और बीजिंग, दोनों ने ही बीते दो वर्षों में परस्पर संतुलन बनाने की दिशा में काम शुरू किया और कई बार इसके लिए दबाव की रणनीति भी अपनाई है। भारत का अमेरिका की ओर, तो चीन का पाकिस्तान की ओर कुछ इस तरह झुकाव देखने में आया, जैसा कि शीतयुद्ध के दौरान भी नहीं देखने को मिला था।
इस सबसे दोनों पक्षों को न तो कोई रियायत मिली, न ही द्विपक्षीय बातचीत की शर्तों में कोई सुधार आया। मसलन, एनएसजी सदस्यता, पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद, जलविद्युत सहयोग जैसे कई महत्वपूर्ण मसले थे, जहां चीन से कोई पुख्ता आश्वासन मिलना चाहिए था, लेकिन नहीं मिला। बीआरआई पर भारत के बहिष्कार के साथ ही चीन ने उसे न सिर्फ अपनी एक महत्वाकांक्षी अंतरराष्ट्रीय पहल के विरोधी के तौर पर देखा, बल्कि एशिया में अपने लिए सबसे अविश्वसनीय और असहयोगी पड़ोसी भी मानने लगा। बीजिंग ने यह भी माना कि दक्षिण एशिया और हिंद महासागर में अपनी चीन विरोधी रणनीति में भारत अब खुलकर बाहरी ताकतों को शामिल करने लगा है। भारत के तिब्बत कार्ड ने इसमें और इजाफा किया। इस बेबुनियाद स्पद्र्धा और भारतीय व चीनी हितों के बढ़ते टकराव के बीच डोका ला ने एक ऐसे बिंदु पर ला खड़ा किया, जहां नरेंद्र मोदी और शी जिनपिंग, दोनों को ही महसूस हुआ कि इन नीतियों से कुछ हासिल होने वाला नहीं और इसमें कुछ बदलाव की जरूरत है।
सुखद बात है कि अभी तक दोनों ही नेतृत्व एक-दूसरे की कोशिशों को सही परिप्रेक्ष्य में देखने की मंशा रखते हैं। भारत-चीन मतभेद दूर कर उन्हें राजनीतिक परिपक्वता और रिश्तों के समग्र ढांचे में बहाल करने का दौर शुरू हुआ है। सुषमा स्वराज और वांग यी की हालिया बैठक से निकले संदेश एक निर्देश की तरह थे। अब तक ‘आधा गिलास खाली’ की कहानी आगे बढ़कर ‘आधा गिलास भरा है’ तक पहुंच गई है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।