
आज़ादी के पहले और उसके बीस बरस बाद तक देश को बड़ी-बड़ी राजनीतिक हस्तियाँ मिली, चुनाव आये गये लेकिन ऐसा नही, हुआ जो इन दिनों हो रहा है। वे देश बनाना चाहते थे, अब देश को छोडिये पहले खुद, गुट, गिरोह फिर पार्टी बनाने की धुन है, यहाँ तक भी बर्दाश्त है। दुःख की बात यह है कि इस नई राजनीतिक शैली की शुरुआत ही प्रतिपक्षी दल की मुक्ति के लक्ष्य से हो रही है, फिर समाज में इसका प्रभाव न दिखे यह असम्भव है।
मुद्दे की बात कोई समझना नहीं चाहता और समझाना भी नही चाहता। 2007 में उत्तर प्रदेश सरकार ने आदेश जारी किया था कि एससी-एसटी ऐक्ट के तहत बिना जांच किसी की गिरफ्तारी न हो। उन्होंने इस आदेश का उल्लंघन करने वालों के खिलाफ कार्रवाई का भी प्रावधान किया था। प्रशासनिक स्तर पर भी आदेश जारी किए गए थे कि पुलिस उपाधीक्षक स्तर के अधिकारी से जांच कराए बिना कोई रिपोर्ट नहीं दर्ज की जाएगी। सबको याद है बहिन जी तब सर्वेसर्वा थीं। अब 11 साल बाद सर्वोच्च अदालत इस प्रशासनिक आदेश को, किस अन्य मामले में फैसले में बदलती है, तो हिंसक आन्दोलन हो जाता है। सवाल है, क्यों ?
पिछले एक वर्ष में पीछे जाकर देखें। तो गुजरात, राजस्थान और हरियाणा याद आते हैं, गुजरात में हार्दिक पटेल, जिग्नेश मेवाणी और अल्पेश ठाकोर अचानक राजनीति के केंद्र में आ गए। हार्दिक पटेल की गिरफ्तारी के बाद कई शहरों में हिंसा भड़क उठी और नौ लोगों को जान गंवानी पड़ गई। राजस्थान हरियाणा में भी मुद्दे ऐसे बड़े नहीं थे की हिंसा ही विकल्प हो, लेकिन हिंसा हुई और आज तक इसके पीछे के कारक “राजनीति” को किसी ने नहीं छोडा किसी ने भी समस्या निदान ,कोई विकल्प नहीं दिया। सबका साथ सबका विकास नारे तक रहा। न ये न वो कोई भी सबको साथ न ला सका विकास तो दूर की कौड़ी है। यह बात शत प्रतिशत सही है की जाति को राजनीति में हथियार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। कर्नाटक उदहारण है, ताश में तुर्र्प चाल की तरह कांग्रेस किसी एक जाति के वोट बैंक पर हाथ रखती है, तो भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष को कहना पड़ता है “ मैं जैन नहीं वैष्णव हिन्दू हूँ।” इतिहास गवाह है की जातियों के उत्पात नींव को हिला देते हैं। हम उसके आधार को वोट बैंक बना रहे है गंभीर प्रश्न है। प्रश्न की जद में सब हैं, नेता नागरिक और देश भी। देश के लिए भूलिए, आपकी जाति क्या है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।