उच्च शिक्षा में स्वायत्तता और ये प्रश्न ? | EDITORIAL

राकेश दुबे@प्रतिदिन। केंद्र सरकार ने एक ट्विटर आदेश से पांच केंद्रीय विश्वविद्यालयों, २१ राज्य विश्वविद्यालयों, २६ निजी विश्वविद्यालयों और १० कॉलेजों को विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) से मुक्त कर स्वायत्तता दे दी है। इन ६२ संस्थानों को यह स्वायत्तता शैक्षणिक गुणवत्ता के आधार पर दी गई, जिसके लिए उनको नैक, बेंगलुरु द्वारा मिले स्कोर को पैमाना बनाया गया है। अब ये संस्थान अपना पाठ्यक्रम और फीस निर्धारित करने व प्रवेश प्रक्रिया तय करने के लिए सरकारी हस्तक्षेप से मुक्त कर दिए गए हैं।

इन ६२ उच्च शिक्षा संस्थानों की दी गई स्वायत्तता भले ही देश की उच्च शिक्षा के एक छोटे से हिस्से को प्रभावित करें, लेकिन उससे उम्मीद जगी है कि अब उच्च शिक्षा की नौकरशाही के शिकंजे से मुक्त हो रही है आगे और सम्भावना है। कई वर्षों से केंद्र और राज्यों के स्तर पर उच्च शिक्षा के सुधारों को लेकर बड़े पैमाने पर चर्चाएं, बहस, संवाद व कार्यशालाएं होती रही हैं। नामी-गिरामी शिक्षाविदों, वैज्ञानिकों और उद्योगपतियों की अध्यक्षता में कमेटियों व आयोगों को नियुक्त किया गया, जिन पर करोड़ों रुपये खर्च कर भारी-भरकम रिपोर्टें तैयार की गईं। इनमें सैम पित्रोदा की अध्यक्षता वाला राष्ट्रीय ज्ञान आयोग, प्रो़ यशपाल कमेटी, फिक्की द्वारा मनोनीत नारायण मूर्ति कमेटी और अंबानी-बिड़ला कमेटी के नाम गिने जा सकते हैं।

प्रश्न यह है क्या स्वायत्तता उच्च शिक्षा की सभी समस्याओं का रातोंरात हल कर देगी ? सवाल यह भी उठेगा कि सरकारी और निजी क्षेत्र की नामचीन संस्थाओं और विश्वविद्यालयों को तो उनके ऊंचे नैक स्कोर के आधार पर पर स्वायत्तता मिल जाएगी, इसके विपरीत समुचित वित्तीय संसाधनों के अभाव और अकुशल प्रशासन के फलस्वरूप दिवालियेपन की तरफ बढ़ रहे देश के अधिकांश सरकारी विश्वविद्यालयों और कॉलेजों का क्या हश्र होगा?

उच्च शिक्षा का इतिहास यह बताता है कि जहां पर भी स्वायत्तता के सिद्धांतों का ईमानदारी से पालन किया गया, वहां पर उच्च शिक्षा में शोध-अनुसंधान के कीर्तिमान स्थापित किए गए। उच्च शिक्षा में स्वायत्तता व जवाबदेही एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, जिसका निहितार्थ है कि विश्वविद्यालयों व कॉलेजों के प्रबंध और दैनंदिन संचालन में किसी भी किस्म की बाहरी दखलंदाजी नहीं होनी चाहिए। इसी के साथ-साथ कुलपतियों और प्राचार्यों की भी जिम्मेदारी है कि वे कि वे पूरी ईमानदारी, प्रतिबद्धता से और विधि सम्मत काम करें। उन्हें सभी संबद्ध पक्षों को भरोसे में लेकर यह बताना होगा कि उनके द्वारा सभी निर्णय जनतांत्रिक ढंग व संस्था के संविधान के अनुरूप लिए गए हैं। स्वायत्तता के मुद्दे पर कुछ शिक्षाविदों, शिक्षक संगठनों व विद्यार्थी संगठनों में यह संशय है कि इसकी आड़ में कहीं केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा पोषित सार्वजनिक विश्वविद्यालयों के अलावा अनुदानित महाविद्यालयों का धीरे-धीरे निजीकरण न कर दिया जाए।सारे राजनीतिक दल सत्ता पाने की होड़ में कॉलेजों व यूनिवर्सिटियों में अपने पांव जमाने के लिए उनके दैनिक कामकाज व नियुक्तियों में हस्तक्षेप करने लगे हैं। अगर हमें भारत की उच्च शिक्षा को पटरी पर लाना है, तो हमारे पास एक ही विकल्प है स्वायत्तता और जवाबदेही। सरकार को सोचना चाहिए।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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