आज़ादी के नाम को लूट सके लूट

राकेश दुबे@प्रतिदिन। कल अर्थात आने वाले कल 15 अगस्त को हमारी आज़ादी की वर्षगांठ है। जिस आज़ादी के आन्दोलन में पूरा देश कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा था, आज उसका श्रेय अपने दल के नाम बटोरने की होड़ मची है। 1947 में मिली आजादी के लिए वर्ष 1942 में छेड़े गए ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के 75 वर्ष पूरे होने के अवसर को संसद में जिस तरह याद किया गया, उससे कई सवाल उठते हैं। यह दुर्लभ अवसर सरकार और सभी राजनीतिक दलों के लिए एक प्रचार दिवस बनकर रह गया है। 

उन्होंने ‘भारत छोड़ो’ के श्रेय को एक बेवजह की होड़ की तरह लिया और अपने-अपने आंदोलन शुरू करने की घोषणा की। इस आंदोलन पर हुई चर्चा के बहाने सभी दलों में अपने-अपने नायकों और अपने राजनीतिक विचार को सही ठहराने की कोशिश ही नहीं की उसे एक दुसरे की निंदा होड़ में बदल दिया। दुःख की बात तो यह है कि इन सबने आज़ादी के दीवानों अपने पूर्वजों  को भी बाँट लिया।

क्या यह शर्म की बात नहीं है कि राज्यसभा में चर्चा के प्रस्ताव के लिए संसदीय कार्य समिति की बैठक में सरकार की ओर से जो प्रस्ताव बांटा गया था, उसमें राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का ही नाम नदारद था? बैठक में शामिल विपक्षी सदस्यों की ओर से जब गांधी का नाम गायब होने की चर्चा उठी तो संसदीय कार्य राज्यमंत्री मुख्त्तार अब्बास नकवी को गलती का अहसास हुआ। बैठक में कांग्रेस नेता आनंद शर्मा भी अपनी ओर से एक प्रस्ताव लेकर पहुंचे थे, जिसमें गांधी के नाम के अलावा स्वतंत्रता आंदोलन के तमाम पहलुओं को शामिल किया गया था। प्रधानमंत्री ने जब संसद में बोलना शुरू किया, तो जवाहरलाल नेहरू का नाम ही भूल गए। 

कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने आरएसएस का नाम लिए बगैर इशारों में कहा कि इस संगठन का ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में कोई योगदान नहीं है। वे भी भूल गई कि आज़ादी में राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण का भी कोई योगदान था। इसी तरह कम्युनिस्ट नेता सफाई देते रहे कि उनके नेताओं का इस आंदोलन में जबर्दस्त योगदान था। इस प्रवृत्ति को क्या कहें, समझ से परे है।

दुनिया के और देशों के स्वतंत्रता आंदोलन और महापुरुषों को लेकर ऐसी असहमति कहीं भी और  कभी भी नहीं  देखी गई। भारत में इतिहास राजनीतिक विवाद का एक प्रमुख प्रश्न गया है। सारे के सारे राजनीतिक दल एक-दूसरे की ऐतिहासिक भूलों की चर्चा करती रहते हैं। जनता उनका आकलन उनकी वर्तमान गतिविधियों के आधार पर ही कर रही है। ऐसे में इतिहास में खुद को उजला दिखाने के प्रयत्न उन्हें हास्यास्पद बना कर इतिहास पर भी प्रश्न चिन्ह आरोपित कर दिया  है। इस तरह से वे हुतात्माओं का मखौल बनाकर राष्ट्र के प्रति असम्मान ही प्रदर्शित कर रहे हैं। ऐसे लोगों से “राष्ट्र प्रथम” की कल्पना करना कोई सार्थक बात नहीं होगी।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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