क्या मुसलमान पहली वाइफ की मर्जी के बिना दूसरी शादी कर सकता है ?

Bhopal Samachar
नई दिल्ली। क्या मुस्लिम समाज का कोई पुरुष अपनी पहली पत्नी की मर्जी के बगैर दूसरी शादी कर सकता है? क्या भारतीय दंड संहिता के मुताबिक यह दो पत्नियां रखने का अपराध नहीं माना जाएगा?

छत्तीसगढ़ के एक पुरुष के खिलाफ 2 पत्नियां रखने का एक मामला कोर्ट के सामने आया था। इस शिकायत को खारिज करने के लिए एक जवाबी अर्जी दायर की गई। अब गुजरात हाईकोर्ट इस मामले पर विचार कर रही है कि क्या आईपीसी (इंडियन पेनल कोड) को मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के कानूनों से ऊपर मान्यता दी जाए या नहीं।

मर्चेंट की पत्नी साजिदा बानू वर्ष 2001 में छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में अपने ससुराल से वापस मायके लौट गई थीं। मर्चेंट ने वर्ष 2003 में साजिदा की मर्जी के बगैर दूसरी शादी कर ली। एक साल बाद साजिदा ने मर्चेंट के खिलाफ 2 पत्नियां रखने के आरोप में शिकायत दर्ज कराई।

गुजरात की भावनगर पुलिस ने मर्चेंट को 2 पत्नियां रखने और पत्नी के साथ मारपीट करने एवं दहेज मांगने के लिए संबंधित धाराओं के तहत मुकदमा दर्ज किया। भारतीय दंड संहिता की धारा 494 में 2 पत्नियां रखने के अपराध में सजा का प्रावधान है। कानून के मुताबिक ऐसा करना अपराध की श्रेणी में आता है।

मर्चेंट ने वर्ष 2010 में हाईकोर्ट का रुख किया । उसका दावा था कि मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत दूसरी शादी करना अपराध नहीं है क्योंकि इस्लामिक कानूनों के मुताबिक एक पुरुष को 4 शादियां करने का अधिकार है।

उसकी इस दलील के खिलाफ साजिदा बानू के वकील ने कहा कि मुस्लिम पर्सनल लॉ के मुताबिक पुरुष को अपनी सभी पत्नियों के साथ समान न्याय का बर्ताव करना चाहिए, लेकिन मर्चेंट ने अपनी पहली पत्नी की सहमति के बिना ही दूसरी शादी कर ली। इस तरह उसने ना सिफ मुस्लिम पर्सनल लॉ को तोड़ा, बल्कि अपनी पत्नी के साथ गलत बर्ताव भी किया। इन्हीं आरोपों को आधार बनाकर साजिया बानू के वकील ने अदालत में कहा कि मर्चेंट को आईपीसी के तहत अपराध की सजा मिलनी चाहिए।

हाईकोर्ट ने इस मामले में कोर्ट की मदद के लिए एक न्यायमित्र (अमाइकस क्यूरे) की नियुक्ति की। उसने कुरान शरीफ के सूरा-एक-निकाह की आयतें पढ़कर अदालत से कहा कि एक से अधिक शादियों को इस्लाम में मंजूरी है। न्यायमित्र ने कोर्ट से यही आयत पढ़कर यह भी कहा कि एक से ज्यादा पत्नियां रखने को हालांकि मंजूरी है, लेकिन सभी पत्नियों के साथ बराबरी का बर्ताव और सबके साथ समान न्याय की भी बात कही गई है।

दोनों पक्षों द्वारा अपनी-अपनी दलीलें कोर्ट के सामने पेश करने और मजहबी कानून की चर्चा खत्म हो जाने के बाद हाईकोर्ट ने अपना फैसला सुरक्षित कर लिया। गौर हो कि 1955 में हिंदू मैरेज ऐक्ट के लागू होने तक हिंदुओं को भी एक से अधिक शादियां करने की अनुमति थी।
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