भारत की संस्कृति में नदियां जीवनदायिनी है। अन्नजल देने वाली इन नदियों को मां मानकर पूजा जाता है। नदियों के बिना मानव जाति के विकास की परिकल्पना असंभव थी। नदियों ने मानव जाति के साथ सहानुभूतिपूर्ण रवैया अपनाकर मानव जाति के विकास में पूरा सहयोग किया। उसकी दैन्दिनी की हर जरूरत को पूरा किया। हमारे ऋषि जानते थे कि पृथ्वी का आधार जल और जंगल है। इसलिए उन्होंने पृथ्वी की रक्षा के लिए वृक्ष और जल को महत्वपूर्ण मानते हुए कहा है- 'वृक्षाद् वर्षति पर्जन्य: पर्जन्यादन्न सम्भव: ' अर्थात् वृक्ष जल है, जल अन्न है, अन्न जीवन है।
जलाशय के पास घर होना चाहिए:अथर्ववेद
हिन्दुओं के चार वेदों में से एक अथर्ववेद में बताया गया है कि आवास के समीप शुद्ध जलयुक्त जलाशय होना चाहिए। जल दीर्घायु प्रदायक, कल्याणकारक, सुखमय और प्राणरक्षक होता है। शुद्ध जल के बिना जीवन संभव नहीं है। यही कारण है कि जलस्रोतों को बचाए रखने के लिए हमारे ऋषियों ने इन्हें सम्मान दिया। पूर्वजों ने कल-कल प्रवाहमान सरिता गंगा को ही नहीं वरन सभी जीवनदायनी नदियों को मांं कहा है। परंपरागत समय में मानवजाति ने नदियों के इस आत्मीय सहयोग को पूरा मान-सम्मान दिया किन्तु आज लोभ और लाभ की मनोवृत्ति की वजह से नदियां संकट में है।
कई सहायक नदियों का अस्तित्व ही समाप्त हो गया
भारत को नदियों का देश माना जाता है तथा यहाँ छोटी और बड़ी नदियों को मिलाकर लगभग 4000 से अधिक नदियां है। देश में 521 नदियों के पानी की निगरानी करने वाले प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के मुताबिक देश की 198 नदियां ही स्वच्छ हैं। इनमें अधिकांश छोटी नदियां हैं। शहरीकरण, औद्योगीकरण तथा अनियोजित विकास के कारण पिछले कुछ दशकों से नदियों की स्थिति अत्यंत चिंताजनक होती जा रही है। कई सहायक नदियों का अस्तित्व ही समाप्त हो गया है।
279 नदियों का पानी आचमन के लायक भी नहीं
नदियों के विनाश में बाजारवाद का बढ़ता प्रभाव भी एक प्रमुख कारक है। दूसरी ओर जलवायु परिवर्तन के चलते नदियों के स्रोत सूखने लगे हैं और नदियां सिकुड़ने लगी है।सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) की ओर से 5 जून 2024 को पर्यावरण दिवस के मौके पर जारी स्टेट ऑफ एनवायरमेंट (एसओई) रिपोर्ट 2023 में यह खुलासा किया कि देश के 30 राज्यों में कुल 279 (46 फीसदी) नदियां प्रदूषित हैं। एसओई रिपोर्ट के मुताबिक देश की 279 अथवा 46 फीसदी प्रदूषित नदियों में सर्वाधिक प्रदूषित नदियां महाराष्ट्र (55) में हैं जबकि इसके बाद मध्य प्रदेश में 19 नदियां प्रदूषित हैं वहीं, बिहार में 18 और केरल में 18 नदियां प्रदूषित हैं। उत्तर प्रदेश में 17 और कर्नाटक में 17 नदियां जबकि राजस्थान में 14 और गुजरात में 13, मणिपुर में 13, पश्चिम बंगाल में 13 नदियां प्रदूषित हैं।
नदियों के पानी में इतना जहर की मछलियां तक मर गई
नदी के पानी का औद्योगिक प्रदूषण भारत में एक गंभीर पर्यावरणीय चुनौती है, जो पारिस्थितिकी तंत्र, सार्वजनिक स्वास्थ्य और आजीविका को गंभीर रूप से प्रभावित करता है। तेजी से बढ़ते औद्योगिकीकरण और अपर्याप्त अपशिष्ट प्रबंधन के कारण खतरनाक अपशिष्ट नदियों को दूषित कर रहे हैं, जिससे पानी की गुणवत्ता में गिरावट आ रही है। जिससे मछलियां विलुप्त हो रही है। मछली जलीय पर्यावरण पर आश्रित जलीय जीव है तथा जलचर पर्यावरण को संतुलित रखने में इसकी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका होती है। जिस पानी में मछली नहीं हो तो निश्चित ही उस पानी की जल जैविक स्थिति सामान्य नहीं है। वैज्ञानिकों द्वारा मछली को जीवन सूचक (बायोइंडीकेटर) माना गया है। कई दूषित नदियों में जैविक ऑक्सीजन की मांग (बीओडी) का स्तर निर्धारित सीमा से 10 गुना अधिक है। मत्स्याखेट की सुरक्षा के लिए नदियों को बहते रहना और प्रदूषणमुक्त रखना भी एक महत्वपूर्ण मुद्दा है।
इसी जहरीले पानी से खेतों की सिंचाई होती है
नदियों में प्रदूषण का असल खमियाजा तो कृषि क्षेत्र पर पड़ता है। प्रदूषित नदियों के जल से सिंचाई होती है और इससे प्रदूषण उस कृषि भूमि पर पहुंच जाती है जहां से सीधे खाद्यान्न आता है। अब एक तरफ तो पैदावार बढ़ाने के लिए किसान खतरनाक उर्वरक इस्तेमाल करते हैं और दूसरी तरफ प्रदूषित नदियों का जल उसे और अस्वास्थ्यकर बनाता है। नदी में अनियंत्रित रेत खनन से नदी के वनस्पतियों और जीवों पर बहुत बुरा असर पड़ता है। रेत खनन जैसे मौजूदा हमले नर्मदा बेसिन को खोखला बना रहा है।
नर्मदा के तटीय क्षेत्र गायब हो गए: BU की रिसर्च रिपोर्ट
बरकतुल्लाह विश्वविद्यालय के सरोवर विज्ञान ने नर्मदा के तटीय क्षेत्रों पर किए गए अध्ययन में बताया है कि नर्मदा के तटीय क्षेत्र जो कभी 500 से 1000 मीटर तक हुआ करते थे, वे अब सिमटकर बिलकुल किनारे तक आ गए हैं। रेत का इस्तेमाल कई गुणा बढ गया है, इसलिए रेत खनन के कारण पर्यावरण पर हो रहे असर की व्यापकता को देखते हुए इसे लघु नहीं, बल्कि प्रमुख खनिज में शामिल कर सख्त पर्यावरणीय अनुमति का प्रावधान किया जाना चाहिए। वर्तमान दौर में नदियां कम्पनियों, कॉर्पोरेट्स और सरकार के मुनाफा कमाने का साधन बन चुकी है। नदियों का प्रशासकीय प्रबंधन की जगह पर्यावरणीय प्रबंधन की दृष्टी से निगरानी तंत्र विकसित करना चाहिए। जिसमें पारिस्थितिकीय तंत्र, जलवायू परिवर्तन और जैव विविधता की समझ रखने वाले विशेषज्ञ को शामिल किया जाना आवश्यक है।
नदी किनारे के प्रत्यक्ष जल ग्रहण क्षेत्र के पहाङ और वन क्षेत्र के जल प्रवाह को प्रभावित करने वाले खनन, निर्माण कार्य, वन कटाई आदि पर पूर्ण प्रतिबंध लगाना होगा। नदी और नदी घाटी के किसी भी संसाधन को प्रभावित करने वाली कोई भी परियोजना का समाजिक, सांस्कृतिक, पर्यावरणीय, जीवन एवं आजिविका, आवास आदि पर पङने वाले प्रभाव का सर्वांगीण अध्ययन और मुल्यांकन निष्पक्ष रूप से किया जाना आवश्यक है। पर्यटन या जल परिवहन की कोई भी परियोजना जिसमें नदी जल का प्रदुषण होना संभव है, उसे प्रदुषण नियंत्रण मंडल द्वारा गहन, सर्वांगीण एवं निष्पक्ष अध्ययन और निष्कर्ष के आधार पर ही सबंधित विभाग द्वारा मंजूरी दिया जाए।उदगम स्थल से समुद्र तक पहुँचने वाली नदी को हर प्रकार के प्रदुषण से मुक्त रखा जाए।इस हेतू नदी घाटी के हर क्षेत्र के लिए सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट जल्द से जल्द तैयार करना।शहरी, ग्रामीण तथा औधोगिक क्षेत्र का अवशिष्ट और खेती में उपयोग किया जाने वाला रसायनिक खाद, कीटनाशक, दवाई आदि को ग्राम सभा एवं राज्य शासन की सबंधित संस्थाओं के माध्यम से नियंत्रित करने का व्यवस्था कायम करना होगा।
नर्मदा घाटी में 30 बङे बांध प्रस्तावित है। इसमें से कई बड़े बांध बनाए जा चुके हैं। अतः उन सभी बांधों का नर्मदा नदी पर पङने वाले उसके वहन क्षमता और संचयी प्रभावों (कम्यूलेटिव ईम्पेकट) का एकत्रित अध्ययन पर्यावरणीय दृष्टि से आवश्यक है। अतः नर्मदा घाटी में निर्मित हुए बांधों के प्रभाव को एकत्रित अध्ययन के बाद ही कोई बांध बनाने पर विचार होना चाहिए।
नदियों के स्वास्थ्य को बहाल करने के लिए बांधों और अवरोधों को हटाना अब एक तेजी से स्वीकार किया जा रहा उपाय बन चुका है, और इसमें खास तौर पर यूरोप और उत्तर अमेरिका में तेजी आई है, जहां पुराने, असुरक्षित, अनुपयोगी या आर्थिक रूप से अलाभकारी बांधों को हटाया जा रहा है। जुलाई 2023 में यूरोपीय संसद ने "नेचर रिस्टोरेशन लॉ" पारित किया, जिसके तहत 2030 तक 25,000 किलोमीटर लंबी नदियों को बाधारहित बनाना अनिवार्य कर दिया गया है।
न्यूजीलैंड की संसद ने वहां की तीसरी सबसे बड़ी नदी वांगानुई को एक व्यक्ति की तरह अधिकार दिया है। भारत के आदिवासी भी अपने आसपास की नदियों को अपना पूर्वज मानते हैं। भारत में उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने गंगा और यमुना नदियों को "जीवित इकाई" का दर्जा दिया है। इसका मतलब है कि इन नदियों को कानूनी व्यक्ति माना जाएगा और उनके संरक्षण के लिए मनुष्यों के समान अधिकार और कर्तव्य होंगे। यह फैसला 20 मार्च, 2017 को दिया गया था। उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कहा कि गंगा और यमुना नदियां, उनकी सभी सहायक नदियां और उनसे निकलने वाले ग्लेशियर, सभी को कानूनी व्यक्ति माना जाएगा। इसका मतलब है कि इन नदियों को नुकसान पहुंचाना, उन्हें प्रदूषित करना या उनके साथ दुर्व्यवहार करना, किसी व्यक्ति को नुकसान पहुंचाने के समान माना जाएगा।
यह फैसला पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण कदम है। यह दर्शाता है कि नदियों को अब केवल प्राकृतिक संसाधनों के रूप में नहीं, बल्कि जीवित प्राणियों के रूप में देखा जाना चाहिए। जहां एक ओर बांधों से कई लाभ मिले हैं, वहीं इसने आदिवासी और मछुआरा समुदायों को प्रभावित किया है और नदी पारिस्थितिक तंत्र को नुकसान पहुंचाया है। डाउन टू अर्थ के रिचर्ड महापात्रा के अनुसार दुनिया भर में नदियों पर अब तक 62,000 बड़े बांध और लाखों छोटे अवरोध बनाए जा चुके हैं। डेम रिमूवल यूरोप ( डीआरई) के अनुसार, 2024 में 23 देशों ने 542 बाधाओं को हटाया है। 2020 में अभियान की शुरुआत के बाद से 2024 में हटाई गई बाधाओं की संख्या सबसे अधिक है।
राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण ने भारत में नदियों के संरक्षण के लिए कई महत्वपूर्ण आदेश दिए हैं। इन आदेशों का उद्देश्य मुख्य रूप से – नदी प्रदूषण रोकना, अवैध खनन नियंत्रित करना, अपशिष्ट प्रबंधन सुनिश्चित करना और जलधाराओं को अविरल बनाए रखना है। भारत में नदियों की रक्षा के लिए प्रदूषण नियंत्रण, प्रवाह संरक्षण, तट प्रबंधन, जनभागीदारी और कानूनी उपाय आवश्यक हैं। सरकार ने नमामि गंगे जैसी योजनाएं शुरू की हैं, परंतु सफलता तभी मिलेगी जब स्थानीय समुदाय, सरकार, उद्योग और नागरिक मिलकर नदी को संसाधन नहीं, बल्कि जीवन के रूप में संरक्षित करें। लेखक: राज कुमार सिन्हा, बरगी बांध विस्थापित एवं प्रभावित संघ।