राकेश दुबे@प्रतिदिन। नरेंद्र भाई मोदी मतलब देश के प्रधान मंत्री ने आश्वासन दिया था कि जीवनरक्षक दवाओं की कीमतें वे बढ़ने नहीं देंगे। मगर, आवश्यक श्रेणी की दवाओं के दाम बढ़ाने की इजाजत उनकी सरकार ने दे दी, जिनमें मधुमेह, एड्स और कैंसर की दवाएं भी शामिल हैं।
इसके बावजूद सरकार सबको स्वास्थ्य सुविधाओं के दायरे में लाने, यहां तक कि चिकित्सा को एक सार्वभौमिक अधिकार बनाने का दम भरती रहती है। गरीबों के लिए चलाई गई बीमा योजनाएं किस कदर भ्रष्टाचार का शिकार हैं| स्वास्थ्य बीमा योजनाएं मरीजों के हित में कम, कंपनियों को बेहिसाब फायदा पहुंचाने वाली ज्यादा साबित हो रही हैं।
भारत की गिनती दवा उद्योग में अग्रणी देशों में होती है लेकिन इसका क्या फायदा यहां के आम लोगों को मिल पाया है? यह आम अनुभव है कि दवाएं दिन पर दिन और महंगी होती जा रही हैं। यों दूसरी चीजों की कीमतें बढ़ रही हों, तो केवल दवाओं के दाम स्थिर रहने की उम्मीद नहीं की जा सकती। पर दवाओं का मूल्य निर्धारण जितना मनमाना है उतना शायद ही किसी और चीज के मामले में हो।
तमाम दवाओं का खुदरा विक्रय-मूल्य लागत से कई गुना, यहां तक कि कई सौ गुना अधिक भी होता है। यह ऐसा क्षेत्र है जहां लागत और विक्रय-मूल्य के बीच के अंतराल का अंदाजा लगा पाना आम लोगों के बस में नहीं होता। इसलिए उचित ही दवा मूल्य निर्धारण प्राधिकरण के तौर पर एक नियामक संस्था बनाई गई। लेकिन इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ा है। दवाओं की कीमतें अब भी मनमाने ढंग से तय होती हैं।
प्राधिकरण आवश्यक या जीवनरक्षक कही जाने वाली दवाओं की सूची तैयार करता है और उसमें समय-समय पर फेरबदल भी। इस सूची की दवाओं का मूल्य निर्धारण प्राधिकरण की मंजूरी से होता है। लेकिन रसायन एवं उर्वरक मंत्रालय से संबद्ध स्थायी संसदीय समिति ने कहा है कि कुछ ही दवाओं को आवश्यक या जीवनरक्षक क्यों माना जाए, इसमें तो सभी दवाएं शामिल होनी चाहिए। समिति की रिपोर्ट सोमवार को लोकसभा में पेश की गई। संसद को इस सुझाव को गंभीरता से लेना चाहिए।
भारत में कमाई का करीब तीन चौथाई हिस्सा दवाएं खरीदने में जाता है। जहां देश की अधिकतर आबादी के लिए रोजमर्रा के गुजारे का खर्च चलाना भी मुश्किल हो, वहां दवा के मद में व्यय उन पर अतिरिक्त बोझ होता है। अगर दवाएं सस्ती मिलें तो यह उनके लिए बड़ी राहत की बात होगी। बड़ी कंपनियां ज्यादा मुनाफा बटोरती हैं। अगर छोटी और मंझली कंपनियां से प्रतिस्पर्धा का दबाव न होता, तो उनकी लूट की कोई सीमा न रहती।
यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि कंपनियां मुनाफा न कमाएं, पर यह तर्कसंगत होना चाहिए। लागत और खुदरा विक्रय-मूल्य के बीच का अधिकतम अंतराल तय हो। और इसके अनुपालन पर निगरानी की व्यवस्था बने। ब्रांडेड की जगह जेनेरिक दवाओं के इस्तेमाल को प्रोत्साहित किया जाए।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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