ग्रामीण दर्द से कराहते रहे, कलेक्टर मुआवजे के फायदे बताते रहे

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अविनाश कुमार चंचल/सिंगरौली। बारह सिंतबर की सुबह महान जंगल में बसे गांव अमिलिया में लोगों के बीच उत्साह, उम्मीदों में नयापन साफ दिख रहा था। वजह जिला कलेक्टर खुद चलकर उनके गांव आ रहे थे। अमिलिया गांव के बेचनलाल अपनी यादों को पकड़ने की कोशिश करते हुए कहते हैं, "ऐसा दो-चार मौका ही आया है जब कलेक्टर साहब गांववालों के बीच आकर लोगों से बात किये हैं"।

अमिलिया के रहने वाले कृपानाथ कलेक्टर के गांव में आने को गांव वालों के संघर्ष की जीत मानते हैं। भोपाल से करीब सात सौ किलोमीटर दूर सिंगरौली जिले में महान जंगल है। इस जंगल को कोयला खदान के लिए कंपनी को देना प्रस्तावित है। जंगल पर निर्भर कई गांव के लोग इस प्रस्ताव का विरोध कर रहे हैं। गांव के लोग लगातार महान जंगल पर वनाधिकार कानून के तहत अधिकार लेने और निष्पक्ष ग्राम सभा आयोजित कर अपने जल-जंगल-जमीन को बचाने के लिए प्रयासरत हैं। इसी संदर्भ में बारह सितम्बर को जिला कलेक्टर गांव वालों से बात करने आने वाले थे।

कलेक्टर ने सिर्फ अपनी कही, बताते रहे मुआवजे के फायदे

जिला कलेक्टर की सभा में करीब आठ सौ की संख्या में लोग शामिल हुए। सभा में शामिल होने आए धनपत कहते हैं कि "कलेक्टर साहब सभा के दौरान सिर्फ कंपनी के मुआवजे के बारे में बताते रहे। कलेक्टर ने कहा कि जो कंपनी कोयला खनन करेगा उसको तेंदू पत्ता, महुआ, चिरौंजी सहित जंगल में मिलने वाले सभी उत्पादों का मुआवजा देना होगा लेकिन हम गांव वाले तो अपने जंगल को ही देना नहीं चाहते फिर कलेक्टर साहब मुआवजे की बात क्यों कर रहे हैं"।

कृपानाथ भी कहते हैं कि "आज कलक्टर साहब कह रहे हैं कि चारागाह के लिए कंपनी जमीन खरीद कर देगी। हम जानना चाहते हैं कि ये जमीन कहां देगी कंपनी ?  यहां से ५०० किमी दूर सागर में कंपनी कह रही है कि जमीन देगी। क्या हम अपने मवेशियों को लेकर रोजाना ५०० किमी दूर चराने जाएंगे?"

सभा में बतौर मुआवजा नौकरी देने के बारे में कलेक्टर ने कहा कि  सामान्य वर्ग में 50 डिसिमिल तथा दलित-आदिवासी वर्ग में 25 डिसिमल जमीन वालों को ही नौकरी दी जाएगी। साथ ही, बिना जमीन वाले लोगों को ड्राइवर और लेबर की तरह काम दिया जा सकता है।

नौकरी देने की इस पूरी प्रक्रिया पर ही सवाल उठाते हुए रामनारायण साहू कहते हैं कि "सदियों से हम जंगल पर अपनी जीविका के लिए निर्भर रहने वाले लोग हैं। अपने हिसाब से जंगल जाते हैं, जितनी जरुरत होती है उतने भर काम करते हैं। खेती से खाने लायक अनाज उपजा लेते हैं। हमारा अबतक मनमर्जी  से काम करने और लोभ से दूर रहने का यही राज है। फिर हम क्यों किसी के यहां नौकर बनकर काम करें। बहुत से लोग जिनके पास जमीन नहीं है वे भी जंगल से इसी तरह अपनी जीविका बड़े आराम से चला लेते हैं। फिर क्यों हमें जबरदस्ती ड्राइवर, मजदूर बनाने पर सरकार तुली है?"

वे सीधा सा हिसाब बताते हैं कि गांव में ज्यादातर गरीब तबके के लोग ही हैं। उनके पास जमीन के नाम पर बहुत थोड़ी सी जगह है। इस मुआवजे की नीति का फायदा सिर्फ गांव के बड़े ठाकुरों को ही मिलने वाला है। इसलिए हम अपनी जमीन-जंगल से खुश हैं- हमें न छेड़ा जाय।

कलेक्टर द्वारा बेहतर स्कूल, अस्पताल जैसे लुभावने सपने दिखाने पर उजराज सिंह खैरवार बिफर गए। उजराज बहुत ही वाजिब सवाल उठाते हैं- "क्या कंपनी और कोयला खदान आने से पहले हमार गांव नहीं था? उस समय क्यों नहीं खोले गए अस्पताल और स्कूल? और जब हमें अपने जमीन से ही उजाड़ दिया जाएगा तो हमारे बच्चे कैसे जाएंगे स्कूल? जंगल में इतनी सारी औषधियां मिल जाती हैं कि शायद ही हमें अस्पताल की कभी जरुरत हुई हो।"

हद तो तब हो गई जब अमिलिया के पड़ोसी गांव बुधेर में जिला केलेक्टर ने सभा की शुरुआत में ही कह दिया कि जो लोग अपना जंगल-जमीन बचाना चाहते हैं वे इस सभा से चले जाएं। हम सिर्फ जमीन देने वालों से बात करेंगे। इसपर सभा में उपस्थित लोगों ने अपना विरोध भी दर्ज करवाया। बुधेर गांव की अनिता कहती हैं- "हमने साफ-साफ कह दिया कि हमें अपना जमीन, अपना जंगल चाहिए।"

जिला कलेक्टर की सभा के बाद  अमिलिया की  महिलाएं खासी नाराज हैं। सभा में शामिल होने आयी सोमारी खैरवार कहती हैं- "सबचीज तो जंगल से ही मिलता है तो कईसे छोड़ दी जंगल। कलेक्टर तो पूरा सभा में हमलोग को चुप ही कराते रहे। हमरा कहां सुनने कलेक्टर।"

महिलाओं में सबसे ज्यादा गुस्सा इसी बात से है कि कलेक्टर ने सभा के शुरुआत में उन्हें बोलने से रोक दिया। कलेक्टर ने कहा कि पहले हमारी सुन लीजिए फिर आप बोल लीजिएगा। हम पूरा दिन बैठकर आपको सुनने ही आए हैं और जब गांव वालों ने बोलना शुरू किया तो वे उठ कर चल दिए।
सुखमन देवी सपाट लहजे में अपनी बात रखती हैं- "कलेक्टर कंपनी की बात सुने। हमसे तो किसी ने पूछा ही नहीं कि जंगल चाहिए कि नहीं चाहिए। कलेक्टर ने मुआवजे के फायदे तो गिना दिए लेकिन वन अधिकार कानून के तहत सामुदायिक वनाधिकार पर कुछ नहीं बोले"।

अपने बच्चों को घर पर छोड़ कर आयी राधाकली जी की चिंता थोड़ी सी अलग है। वे बताती हैं कि "कलेक्टर हमलोग के रक्षा करने आए थे तो अधूरा मीटिंग करके क्यों चले गए। हमलोग दिनभर घर का काम-काज छोड़ कर धूप में बैठे रहे"।

राधाकली के साथ-साथ फूलमती, पानमति, भगवन्ती, समिलिया,कांति सिंह, बूटल, तिलिया सहित सैकड़ों महिलाओं ने जिला कलेक्टर के रवैये पर गुस्सा जाहिर करते हुए एलान कर दिया है कि "हमको अपने जंगल का पता मालूम है और कुछ नहीं जानते। न पईसा, न नौकरी।" अपने जंगल पर अधिकार के लिए संघर्ष करते रहने का संकल्प दोहराते हुए लोगों ने अपने-अपने घर की राह ली।

दुर्भाग्य है कि एकतरफा बात करने या फिर फरमान सुनाने वाले कलेक्टर उसी भारत सरकार के नुमाइंदे हैं जो खुद को विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र वाला देश घोषित करता है। जब जिला कलेक्टर लोगों को मुआवजे के नाम पर सब्जबाग दिखा रहे थे तो मुझे कुछ ही दूरी पर रिलायंस के पावर प्लांट्स से विस्थापित गांव अमलौरी के रामप्रसाद वैगा याद आ गए। वैगा ने बताया था- "जब कंपनी आने वाली थी।

हमसे जमीन मांगने के लिए खुद  कलेक्टर और बांकि साहब लोग आते थे। वे हमें स्कूल-अस्पताल और न जाने किस-किस तरह के विकास के सपने दिखाते। हमें कुर्सी पर बैठाया जाता। सच है कि स्कूल भी खुला, अस्पताल भी लेकिन स्कूल में साहब लोग के बच्चे पढ़ने जाते हैं. अस्पताल में कभी दवा नहीं मिलता। लकवे का ईलाज भी प्राथमिक उपचार केन्द्र पर ही करवाने को मजबूर हैं। विरोध करने पर कलेक्टर साहब भी नहीं सुनते। अब तो कंपनी के फाटक पर भी फटकने नहीं दिया जाता"।

और सिर्फ जिला कलेक्टर ही नहीं मुझे तो पंडित नेहरु भी याद आते हैं, जिन्होंने सिंगरौली में पहले पावर प्लांट लगने के वक्त कहा था कि इसे स्वीजरलैंड बनाएंगे। चाचा नेहरु आकर देखो अपने स्वीजरलैंड को। आजकल मामा शिवराज इसे लंदन बनाने की बात कह रहे हैं।

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