प्रत्येक वर्ष शरद पूर्णिमा के दिन भेङाघाट में सरकार द्वारा नर्मदा महोत्सव का भव्य आयोजन किया जाता है। परन्तु इसी नर्मदा नदी में जबलपुर से लगभग 136 एमएलडी प्रतिदिन सीवेज (नाले-नालियों का गंदा पानी) सीधे नर्मदा में जा रहा था।अब जबलपुर में लगभग 58.7 एमएलडी सीवेज का ट्रिटमेंट हो पा रहा है, जबकि लगभग 115 एमएलडी सीवेज बिना ट्रीटमेंट के नर्मदा में अब भी जा रहा है। नर्मदा नदी मध्य भारत की जीवनरेखा है, जो लाखों लोगों को पेयजल, सिंचाई और आजीविका प्रदान करती है। परन्तु नर्मदा नदी की सहायक नदियों से कटते जंगलों का नर्मदा पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा है।जिसका असर पारिस्थितिक तंत्र, जल विज्ञान और सामाजिक स्तरों पर हो रहा है।
नर्मदा को सदा नीरा बनाने वाली नदियां सूख रहीं हैं
नर्मदा की छोटी बड़ी कुल 41 सहायक नदियां है, जिसमें से 19 नदियां ऐसी है जिसकी लम्बाई 54 किलोमीटर से भी अधिक है। ये सहायक नदियां ही सतपुड़ा, विंध्य और मैकल पर्वतों से बूंद-बूंद पानी लाकर नर्मदा को सदा नीरा बनाती है। लेकिन इनमें से कई नदियां सूखने के कगार पर है या फिर शहरों के आसपास नालों में तब्दील हो रही है। नर्मदा किनारे अतिक्रमण, जलग्रहण क्षेत्र में पेड़ कटने और अवैध रेत खनन इस नदी की आत्मा को छलनी कर दिया है। नर्मदा की प्रमुख सहायक नदियां जैसे तवा, बनास, शेर, बेतुल की दूधी, हिर्दा, ओरस, गोई, शक्कर, बंजर, हालोन, बुढनेर आदि घने वनों से निकलती है। इन क्षेत्रों में जंगल कटने से वर्षा जल का भूगर्भ में रिसाव घटा है। जिससे झरनों और छोटी धाराओं का जल प्रवाह घटा है, सहायक नदियां मौसमी होती जा रही हैं और नर्मदा का वार्षिक जलप्रवाह घटकर असंतुलित हो गया है।
नर्मदा बेसिन के हाइड्रोलॉजिकल चक्र में बड़ा असंतुलन आ गया है
पहले घने जंगल बारिश के पानी को रोककर धीरे-धीरे नदी में छोड़ते थे, जिससे नर्मदा साल भर बहती रहती थी। अब बरसात में अचानक बाढ़ जैसी स्थिति बनती है और गर्मी में नदी का जलस्तर तेजी से घटता है। इससे नर्मदा बेसिन के हाइड्रोलॉजिकल चक्र में बड़ा असंतुलन आ गया है। जंगलों के कटने के कारण मिट्टी का कटाव बढ़ा है। इससे सहायक नदियों में गाद जमने लगी है और नर्मदा के जलाशयों (जैसे तवा, बरगी, सरदार सरोवर) में सिल्टेशन (गाद) दर बढ़ी है, जिससे उनकी जलधारण क्षमता कम होती जा रही है। जंगल कटने से वन्यजीवों के प्राकृतिक गलियारे टूटे, नदी तट की जैव विविधता घटी और नदी की स्वयं शुद्धिकरण क्षमता भी प्रभावित हुई है।
नदी पुनर्जीवन अभियान आवश्यक है
नर्मदा घाटी के हजारों गांव जो खेती, मछली पालन और पेयजल के लिए इन नदियों पर निर्भर थे, अब जल संकट और आजीविका संकट का सामना कर रहे हैं। भूमिगत जलस्तर घटने से कुएं और बोरवेल सूखने लगे हैं। नर्मदा नदी पर बने बरगी, इंदिरा सागर, ओंकारेश्वर और सरदार सरोवर बांधों में लगभग 60 हजार हेक्टेयर वन भूमि और जंगल डूब में आया है। प्रस्तावित मोरांड-गंजाल और बसनिया बांध से लगभग 5 हजार हेक्टेयर घना जंगल डूब में आने वाला है। अगर नर्मदा की सहायक नदियों के जंगलों की पुनर्स्थापना नहीं की गई तो नर्मदा का प्रवाह क्रमशः घटेगा,नदी का “परिणामी बहाव क्षेत्र घटेगा और मध्य भारत के जल-संतुलन पर स्थायी नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। नर्मदा की सहायक नदियों के जलागम क्षेत्रों में वनों की बहाली मृदा संरक्षण, वर्षा जल संचयन, और समुदाय-आधारित नदी पुनर्जीवन अभियान आवश्यक है।
नर्मदा से बेहिसाब रेत निकालने का परिणाम
दूसरी ओर हाल के वर्षों में नर्मदा में अत्यधिक और अवैध रेत खनन ने इसके प्राकृतिक स्वरूप और संतुलन को गंभीर रूप से प्रभावित किया है। रेत केवल निर्माण सामग्री नहीं, बल्कि नदी के पारिस्थितिकी तंत्र की नींव होती है। रेत खनन से नर्मदा का तल गहराता जा रहा है, जिससे किनारों का कटाव बढ़ा और नदी का प्राकृतिक प्रवाह मार्ग अस्थिर हुआ है। कई स्थानों पर नदी का आकार और दिशा दोनों बदलने लगा है। रेत जल को छानने और नीचे पहुंचाने का काम करती है। इसके हट जाने से भूजल पुनर्भरण घटा है और नर्मदा घाटी के कई क्षेत्रों में कुएं और बोरवेल सूखने लगा है। रेत हटने से बरसात में तेज़ बाढ़ और गर्मियों में सूखापन बढ़ गया है। मछलियां, कछुए और अन्य जलीय जीव अपने प्राकृतिक आवास खो रहे हैं। नदी की स्वयं-शुद्धिकरण क्षमता भी कम हो गई है।अवैध रेत खनन से स्थानीय किसानों, मछुआरों और नाविकों की आजीविका प्रभावित हुई है। कई जगहों पर अपराध और सामाजिक तनाव भी बढ़े हैं। राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एनजीटी) और मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय ने नर्मदा में अवैध खनन पर कई बार रोक लगाई है। परंतु प्रशासनिक नियंत्रण के अभाव में समस्या बनी हुई है। वैज्ञानिक पद्धति से सीमित खनन और स्थानीय ग्राम सभाओं की भागीदारी से ही संतुलन संभव है।
नर्मदा का जल आचमन के योग्य भी नहीं रह गया
तीसरा महत्वपूर्ण बात है कि नर्मदा नदी के किनारे बसे कई शहर और नगर आज नदी प्रदूषण के प्रमुख स्रोत बन चुके हैं। यह प्रदूषण मुख्यतः घरेलू सीवेज, औद्योगिक अपशिष्ट, प्लास्टिक कचरा और धार्मिक अवशेषों के कारण बढ़ा है। परिणामस्वरूप नर्मदा का पानी पीने योग्य नहीं रह गया है और कई जगह जैव-ऑक्सीजन मांग (बीओडी) मानक से ऊपर पाई जाती है। होशंगाबाद और जबलपुर के पास फेकल कोलिफॉर्म बैक्टीरिया की मात्रा खतरनाक स्तर पर पाई गई है। यह न केवल पारिस्थितिकी को नुकसान पहुंचा रहा है, बल्कि मानव स्वास्थ्य के लिए भी खतरा है। नर्मदा बेसिन में सम्मिलित जिलों की आबादी सन् 1901 में लगभग 78 लाख थी जो 2001 में 3.31 करोड़ हो गई। अनुमान है कि 2026 आते-आते आबादी 4.81 करोड़ हो जाएगा तब नर्मदा घाटी के प्राकृतिक संसाधनों पर भारी दबाव होगा। इसलिए नर्मदा महोत्सव को मनाते हुए दम तोड़ती नर्मदा के सवालों पर चिंतन किया जाना भी जरूरी है। लेखक: राज कुमार सिन्हा, बरगी बांध विस्थापित एवं प्रभावित संघ जबलपुर।