दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 156(3) के अंतर्गत सभी व्यक्ति को अधिकार है कि वह मजिस्ट्रेट के समक्षकिसी भी अपराध की शिकायत कर सकते हैं एवं धारा 156(3) के अंतर्गत मजिस्ट्रेट को शक्ति प्राप्त है की वह ऐसे पुलिस अधिकारी को हटा सकता है जो अपराध का अन्वेषण नहीं कर रहा है या अनुचित तरीके से कर्तव्य का पालन कर रहा है।
एक महत्वपूर्ण वाद दिलावर सिंह बनाम दिल्ली राज्य(2007) में न्यायालय द्वारा अभिनिर्धारित किया कि एफआईआर दर्ज होने के बाद भले ही पुलिस ने अन्वेषण किया हो या कोई अन्वेषण कर रही है लेकिन पीड़ित व्यक्ति इसे पर्याप्त नहीं समझता तो वह दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 156(3) के अंतर्गत मजिस्ट्रेट के समझ परिवाद दायर कर सकता है। मजिस्ट्रेट पीड़ित व्यक्ति की बातों से संतुष्ट हो जाता है, तब वह उचित अन्वेषण का आदेश दे सकता है एवं वह आदेश यह नहीं माना जाएगा कि मजिस्ट्रेट ने पुलिस अन्वेषण में हस्तक्षेप किया है।
सवाल यह भी है कि क्या मजिस्ट्रेट किसी आवेदन मात्र को परिवाद मान सकता है:-
सुरेश चंद्र जैन बनाम मध्यप्रदेश राज्य (2001):- उक्त मामले में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि मजिस्ट्रेट के पास दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 156(3) के तहत एक साधारण आवेदन को भी परिवाद के रूप में मानने की अधिकार शक्ति प्राप्त है चाहे वह किसी भी भाषा में लिखा गया हो। Notice: this is the copyright protected post. do not try to copy of this article) :- लेखक ✍️बी.आर. अहिरवार (पत्रकार एवं लॉ छात्र होशंगाबाद) 9827737665
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