दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा154 के अंतर्गत प्रत्येक पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी का कर्तव्य है कि वह किसी संज्ञेय अपराध होने पर तुरंत FIR दर्ज करें एवं उसके बाद अन्वेषण प्रारंभ करें लेकिन कुछ संज्ञेय अपराध घटित होने की स्थिति में पुलिस थाना अधिकारी को छूट हैं की वह एफआईआर दर्ज करने से पहले जाँच कर सकता है एवं जाँच उपरांत प्रथम सूचना रिपोर्ट के ठोस साक्ष्य उपलब्ध न हो तो रिपोर्ट दर्ज करने से मना भी कर सकता है। जानिए सुप्रीम कोर्ट का महत्वपूर्ण जजमेंट।
उत्तर प्रदेश राज्य बनाम रघुवीर (2018)
एफआईआर दर्ज की देरी आमतौर पर संदेह की दृष्टि में देखी जाती है क्योंकि मनगढन्त बातों (कहानी) की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। साक्ष्य न्यायालय द्वारा गलत परिशीलन के अधीन है। इस पर सर्वोच्च न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि आरोपी को दोषसिद्ध और दण्डित करना और मामले के तथ्यों और परिस्थितियों में अन्य आरोपियों के विरुद्ध कोई ठोस (सुसंगत) साक्ष्य न होने के कारण उन्हें संदेह का फायदा देकर दोषमुक्त कर देना न्यायोचित होगा।
ललिता कुमारी बनाम उत्तर प्रदेश सरकार(2013)
उक्त वाद में न्यायालय द्वारा अभिनिर्धारित किया कि ऐसे कुछ मामलों में एफआईआर दर्ज होने से पहले पुलिस अधिकारी प्रारम्भिक जाँच कर सकता है। वे निम्न हैं :-
A. वैवाहिक एवं पारिवारिक मामले (पुनः इसी निर्णय को दोहराया सोशल एक्शन फोरम फॉर मानव अधिकार बनाम भारत संघ 2019)।
B. वाणिज्यिक अपराध।
C. डॉक्टर या चिकित्सा की लापरवाही के मामले।
D. भ्रष्टाचार संबंधित मामले।
E. एवं ऐसे आपराधिक मामले जहाँ कार्यवाही शुरू करने में असमान्य विलम्ब (अधिक समय) हो गया हो।
दोनो जजमेंट से स्पष्ट हो जाता है कि कुछ संज्ञेय अपराध में अगर पुलिस थाना अधिकारी या मजिस्ट्रेट साक्ष्य को संदेह के परे में देखते हुए आरोपी को जमानत पर छोड़ देता है या दोषमुक्त कर देता है या एफआईआर दर्ज नहीं करता है सिर्फ शिकायत दर्ज ही करवाता है तब यह उनकी विधि कार्यवाही होगी। Notice: this is the copyright protected post. do not try to copy of this article) :- लेखक ✍️बी.आर. अहिरवार (पत्रकार एवं लॉ छात्र होशंगाबाद) 9827737665
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