क्या पुख्ता सबूत होने पर मजिस्ट्रेट तत्काल सजा सुना सकते हैं, पढ़िए CrPC section 228

पुलिस किसी भी व्यक्ति को पकड़ कर जब मजिस्ट्रेट के सामने प्रस्तुत करती है तो उसके पास FIR और इन्वेस्टिगेशन रिपोर्ट होती है। पुलिस की जांच प्रतिवेदन कई बार आरोपी के खिलाफ काफी पुख्ता सबूत होते हैं, जिन्हें देखकर कोई भी पहली नजर में बता सकता है कि अपराध इसी व्यक्ति ने किया है। आइए पढ़ते हैं कि ऐसा कौन सा कानून है जो पुख्ता सबूत होने के बावजूद मजिस्ट्रेट को तत्काल सजा सुनाने से रोकता है।

दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 228 की परिभाषा:-

अगर मजिस्ट्रेट को लगता है की कोई आरोपी पर लगाए गए आरोप सिद्ध किये जा सकते हैं तब:- 
मजिस्ट्रेट आरोपी को उसके आरोप के अपराध के बारे में बताएगा एवं मजिस्ट्रेट आरोपी से पूछेगा की वह अपराध को स्वीकार करता है या नहीं।
अगर आरोपी व्यक्ति अपराध को स्वीकार करता है तो उसके अपराध के लिए दंड का निर्धारण किया जाएगा अन्यथा आरोपी व्यक्ति मजिस्ट्रेट से आरोपो का विचारण की बोल सकता है।

मजिस्ट्रेट आरोपी व्यक्ति से सारे आरोपों को इस धारा के अनुसार विरचित करेगा एवं आरोपों का विचारण पुलिस रिपोर्ट को मंगवा कर करेगा।

यह धारा स्पष्ट करती है कि आरोपी व्यक्ति चाहे तो अपराध को स्वीकार कर सकता है, चाहे तो वह मजिस्ट्रेट से अपने ऊपर लगे गए अपराध का विचारण करवा सकता है।

उधानुसार:- मोहन पर गंभीर मारपीट का आरोप था। कोर्ट में पुलिस ने जो इन्वेस्टिगेशन रिपोर्ट प्रस्तुत की उसके हिसाब से मजिस्ट्रेट को विश्वास होता है कि आरोपी व्यक्ति के खिलाफ पर्याप्त साक्ष्य उपलब्ध है परंतु फिर भी मजिस्ट्रेट उसकी सजा का निर्धारण नहीं कर सकता। दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 228 के अंतर्गत मजिस्ट्रेट, आरोपी व्यक्ति से अपराध की स्वीकारोक्ति मांगेगा। यदि आरोपी ने अपराध करना स्वीकार नहीं किया और खुद को निर्दोष बताया तो मजिस्ट्रेट को उस प्रधान का विचारण करना होगा। (Notice: this is the copyright protected post. do not try to copy of this article)

:- लेखक बी.आर. अहिरवार (पत्रकार एवं लॉ छात्र होशंगाबाद) 9827737665
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