कब सहमति तथ्यों को साबित करना न्यायालय आवश्यक नहीं समझता है जानिए- Law of Evidence

किसी भी विषय पर न्यायिक विचारण के दो तरीके हो सकते है एक जाँच ढंग जिसमे न्यायाधीश भी अन्वेषण का कार्य करता है एवं तथ्यों को साबित कर सकता है एवं दूसरा विपक्षी ढंग जिससे न्यायाधीश खामोश हाकिम की तरह बैठता है। वह न तो किसी पक्षकार को कोई सलाह दे सकता हैं और न किसी विशिष्ट साक्ष्य को पेश करने के लिए कह सकता है, वह अपने निर्णय उसके सामने की गई बहस के अनुसार देता है। उसे जैसे पक्षकारों ने जो विवाद्यक (विवाद) के तथ्य निकाले हैं उन्हीं के अनुसार चलना पड़ता हैं, जो तथ्य पक्षकारों ने मान लिए है उनके बारे मे कोई विवाद नहीं होता और किसी सबूत की आवश्यकता भी नहीं रहती हैं जानिए।

साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 58 की परिभाषा:-

न्यायालय या न्यायाधीश उन तथ्यों को साबित करना आवश्यक नहीं समझता है जब कार्यवाही के पक्षकार या उनके अभिकर्ता सुनवाई पर स्वीकार करने के लिए सहमत हो जाते हैं या वह सुनवाई से पहले किसी वाद पर या मामले में लिखिए सहमति दे देता है तब न्यायालय ऐसी स्वीकृति के बाद तथ्यों को साबित करना आवश्यक नहीं समझता है।

उधानुसार:- एक पत्नी अपने पति पर द्विविवाह का आरोप का विचारण मामला न्यायालय में पेश करती है। मजिस्ट्रेट के विचारण के समय दोनो में आपसी समझौता हो जाता है तब मजिस्ट्रेट पक्षकारों से कोई तथ्य साबित करने की नहीं बोल सकता है।  :- लेखक बी. आर. अहिरवार (पत्रकार एवं लॉ छात्र होशंगाबाद) 9827737665 | (Notice: this is the copyright protected post. do not try to copy of this article) इसी प्रकार की कानूनी जानकारियां पढ़िए, यदि आपके पास भी हैं कोई मजेदार एवं आमजनों के लिए उपयोगी जानकारी तो कृपया हमें ईमेल करें। editorbhopalsamachar@gmail.com

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