निजी क्षेत्र की वकालत का क्या मतलब है सरकार ? - Pratidin

आखिकार,लोकसभा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने निजी क्षेत्र की भूमिका की जमकर सराहना की। राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद देते हुए उन्होंने कहा कि सार्वजनिक क्षेत्र जरूरी है, लेकिन निजी क्षेत्र की भूमिका को कमतर नहीं आंका जा सकता। आज भारत मानवता की सेवा इसलिए कर रहा है, क्योंकि निजी क्षेत्र का भी सहयोग मिला। हो सकता है कुछ लोग प्रधानमंत्री की बातों से कुछ हद तक सहमत हो लेकिन उनकी बात पूर्ण सच नहीं है।

सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका को कोई नकार नहीं सकता है। कोरोना महामारी के दौरान हमने देखा है कि अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों को निभाने के लिए यह किस कदर तत्पर रहा। कोरोना मरीजों की तीमारदारी हो या विदेश में फंसे भारतीयों को वापस लाना, सरकारी उपक्रम ही आगे रहे। शायद ही कोई इस बात से असहमत हो कि सरकारी क्षेत्र की कंपनियों ने ही देश की बुनियाद तैयार की, जबकि निजी क्षेत्र हमेशा पूंजी की कमी कहानी कहते रहे। आज के माहौल में ये प्रश्न उठाना स्वाभाविक है :-१.सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के दिन क्या अब लद गए हैं? २. क्या आने वाले समय में देश का भविष्य निजी हाथों में है?

एक सवाल यह भी है कि सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों की छवि आज इतनी खराब क्यों है? आखिर क्यों यह माना जाता है कि सरकारी नौकरी में आने के बाद लोगों में आरामतलबी बढ़ जाती है? दरअसल, सार्वजनिक क्षेत्र ‘क्रोनी कैपिटलिज्म’ से जूझ रहा है। इसका अर्थ है कि उद्योगपति सत्तारूढ़ नेताओं और नौकरशाहों से सांठगांठ करके अपना हित साध लेते हैं। उदहारण मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री काल में विजय माल्या नागरिक उड्डयन मंत्रालय की सलाहकार समिति के सदस्य भी थे और अपनी विमानन सेवा भी शुरू कर चुके थे। अपने फायदे के लिए ही उन्होंने किंगफिशर के स्लॉट एअर इंडिया से १० मिनट पहले तय करवाए, जिसका नुकसान सरकारी विमानन सेवा को उठाना पड़ा।

अर्थशास्त्री जून रॉबिन्सन ने कभी कहा था कि सार्वजनिक क्षेत्र के साथ-साथ यदि निजी क्षेत्र को आगे बढ़ाया जाएगा, तो सार्वजनिक क्षेत्र कतई सफल नहीं हो सकता। हमारा अब तक का अनुभव ऐसा ही रहा है। जहां-जहां निजी क्षेत्र का दखल हुआ, वहां-वहां से सार्वजनिक क्षेत्र को बाहर करने की कोशिशें तेज होने लगीं। संभवत: इसीलिए १९९३ में वैकल्पिक बजट बनाते समय करीब २० सांसदों से तत्कालीन उद्योग मंत्री अजीत सिंह ने साफ-साफ कहा था कि सार्वजनिक क्षेत्र को भी निजी क्षेत्र की तरह चमकदार बनाया जाना चाहिए। उस बैठक में कमोबेश सभी इससे सहमत थे कि निजी क्षेत्र की कंपनियां सांठगांठ करके अपने काम निकालती हैं, जिसका नुकसान अंतत: सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों को उठाना पड़ता है।

सही बात तो यह है कि सार्वजनिक क्षेत्र को जान-बूझकर महत्वहीन बनाया जाता रहा और बनाया जा रहा है,जबकि सामाजिक जिम्मेदारी निभाने में यह क्षेत्र कितना आगे है, यह कोई छिपा हुआ तथ्य नहीं है। भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड (भेल) का ही उदाहरण लें। इसने पिछड़े क्षेत्र को भी खूब संवारा है। भोपाल में ही जब भेल का संयंत्र लगाया गया, तो न सिर्फ यहाँ संयंत्र शुरू हुआ , बल्कि टाउनशिप भी बसाई गई। कुल मिलाकर, एक पूरा सामाजिक ढांचा तैयार किया गया। निजी क्षेत्र की कंपनियों से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती। उन्हें सिर्फ और सिर्फ अपने फायदे से मतलब होता है। पिछली सदी के ९० के दशक के बाद नीतियां इसी तरह से बनाई गईं कि सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियां घाटे में जाती रहीं और फिर उनको निजी हाथों में बेचा जाता रहा।

सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों को आरामतलबी से जोड़ने के पीछे भी यही मकसद है। इससे कर्मचारियों के मनोबल को तोड़ने की कोशिश की जाती है। आज भी जिम्मेदार पदों पर बैठे अधिकारी निजी क्षेत्र के किसी भी मैनेजर से कम काम नहीं करते। सुबह से लेकर देर शाम तक वे मेहनत करते हैं। फिर भी, बाबूगीरी का दाग उन पर थोप दिया गया है। बेशक कई सरकारी संस्थान हैं, जहां काहिली पसरी हुई है। मगर टूटे हुए मनोबल से यदि कर्मचारियों से काम लिया जाए, तो निजी क्षेत्र की कंपनियां भी फायदा नहीं कमा सकतीं। ऐसे में, मध्यमार्ग कहीं बेहतर जान पड़ता है।

सार्वजनिक उद्यमों की हमें उन इलाकों में खासतौर से जरूरत है, जहां गरीबी पसरी हुई है। लिहाजा सरकारी संस्थानों में पारदर्शिता लानी चाहिए और उनको जनता के प्रति जिम्मेदार बनाया जाना चाहिए। तभी वे सही तरीके से काम कर सकेंगे। रही बात निजी क्षेत्र की, तो इसे भी अवश्य तवज्जो मिलनी चाहिए, लेकिन उन जगहों पर, जहां धनाढ्य वर्गों का वास्ता ज्यादा हो। निजी क्षेत्र को खुश करने की परंपरा बंद होनी चाहिए। सामाजिक-आर्थिक सर्वे के मुताबिक, ९० प्रतिशत दिल्ली वाले प्रतिमाह २५ हजार से भी कम रुपये अपने परिवार पर खर्च करते हैं। इसका साफ मतलब है कि लोगों के पास खर्च करने के लिए पैसे नहीं हैं, इसलिए उन्हें निजी बाजार के हवाले नहीं किया जा सकता।

सार्वजनिक क्षेत्र इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि यह बाजार में संतुलन बनाए रखता है और निजी क्षेत्र को मनमानी नहीं करने देता। एम्स यदि कोई ऑपरेशन एक लाख रुपये में करता है, तो निजी अस्पताल चाहकर भी उसके लिए 10 लाख रुपये नहीं मांग सकते। उन्हें अधिक से अधिक तीन-चार लाख में ही उस ऑपरेशन को करना होगा। दूसरे देशों से भी हम अपनी तुलना नहीं कर सकते। विशेषकर विकसित देशों में बेशक निजी कंपनियों का बोलबाला है, लेकिन इसकी वजह यही है कि वहां गरीबी कम है। अगर हमने अपने यहां निजी क्षेत्र को सब कुछ सौंप दिया, तो हमारे गरीबों का जीना मुहाल हो सकता है। बाजारीकरण की नीतियों ने देश में खासी असमानता बढ़ाई है।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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