इस विनाश का कारण गंगा को अविरल बहने से रोकना था - Pratidin

वैसे तो उत्तराखंड में जल विद्युत परियोजनाओं के लिए बनाए जा रहे बांधों पर शुरू से ही उंगलियां शुरू से ही उठाई जाती रही हैं। टिहरी पर बंधे बांध को रोकने के लिए तो लंबा अभियान चला था। पर्यावरणविद‍् और भू-वैज्ञानिक भी हिदायतें देते रहे हैं कि गंगा और उसकी सहायक नदियों की अविरल धारा बाधित हुई तो गंगा तो प्रदूषित होगी ही, हिमालय का भी पारिस्थितिकी तंत्र गड़बड़ा सकता है ,लेकिन औद्योगिक-प्रौद्योगिक विकास के लिए इन्हें नजरअंदाज किया गया। अब केदारनाथ दुर्घटना के सात साल बाद एक बार फिर उत्तराखंड तबाही का सामना करने को विवश है। सर्वोच्च न्यायालय भी इस बिंदु पर चिंता जता चुका है, पर हम हैं कि चेतने को तैयार नहीं है |

यह तो एक सर्व ज्ञात तथ्य है कि केंद्र सरकार के अधीन जल संसाधन मंत्रालय 2016 में न्यायालय से कह चुका है कि अब यहां यदि कोई नयी विद्युत परियोजना बनती है तो पर्यावरण के लिए खतरा साबित होगी। दरअसल, 2013 में आई केदारनाथ त्रासदी के बाद एक याचिका की सुनवाई करते हुए 24 निर्माणाधीन विद्युत परियोजनाओं पर रोक लगा दी गई थी। यह मामला आज भी विचाराधीन है। बावजूद उत्तराखंड में बिजली के लिए जल के दोहन का सिलसिला जारी है।

आंकड़े कहते हैं, उत्तराखंड में गंगा और उसकी सहयोगी नदियों पर एक लाख तीस हजार करोड़ की जल विद्युत परियोजनाएं निर्माणाधीन हैं। ऋषिगंगा परियोजना का कार्य भी 95 प्रतिशत पूरा हो चुका था लेकिन इस हादसे ने डेढ़ सौ लोगों के प्राण तो लीले ही, संयंत्र को भी पूरी तरह ध्वस्त कर दिया। इन संयंत्रों की स्थापना के लिए बड़ी संख्या में पेड़ों को काटने के बाद पहाड़ों को निर्ममता से छलनी किया जाता है और नदियों पर बांध निर्माण के लिए बुनियाद हेतु गहरे गड्ढे खोदकर खंभे व दीवारें खड़ी की जाती हैं। इन गड्ढों की खुदाई में ड्रिल मशीनों से जो कंपन होता है, वह पहाड़ की परतों की दरारों को खाली कर देता है और पेड़ों की जड़ों से जो पहाड़ गुंथे होते हैं, उनकी पकड़ भी इस कंपन से ढीली पड़ जाती है। नतीजतन पहाड़ों के ढहने और हिमखंडों के खिसकने की घटनाएं नंदादेवी क्षेत्र में बढ़ रही हैं। इसीलिए ऋषिगंगा, धौलीगंगा, विष्णुगंगा, अलकनंदा, मंदाकिनी और भागीरथी गंगा के जल अधिग्रहण क्षेत्र प्रभावित हो रहे हैं।

सब यह भी जानते हैं इन्हीं नदियों का पानी गोमुख से निकलकर गंगा की धारा को निरंतर बनाए रखता है। स्पष्ट है, गंगा की धारा को उद्गम स्थलों पर ही ये संयंत्र अवरुद्ध कर रहे हैं। जब प्रस्तावित सभी परियोजनाएं कालांतर में अस्तित्व में आ जाती हैं तो गोमुख और हिमालय से निकलने वाली सभी नदियों का पानी पहाड़ से नीचे उतरने से पहले ही रोक लिया जाएगा, तब गंगा अविरल कैसे बहेगी?

वास्तव में ऋषिगंगा पर बन रहा संयंत्र रन ऑफ रिवर पद्धति पर आधारित था, जिसका अर्थ है कि यहां बिजली बनाने के लिए बांध तो नहीं बनाया गया था, लेकिन परियोजना को निर्मित करने के लिए नदी की धारा में मजबूत आधार स्तंभ बनाए गए थे। इन पर टावर खड़े करके विद्युत निर्माण के यंत्र स्थापित कर दिए गए थे। ऐसे में यह समूची परियोजना हिमखंड के टूटने से जो पानी का तेज प्रवाह हुआ, उससे क्षतिग्रस्त हो गई। यह संयंत्र जिस जगह बन रहा था, वहां दोनों किनारों पर संकरी घाटियां हैं, इस कारण पानी का वेग अधिक था, जिसे आधार स्तंभ झेल नहीं पाए और संयंत्र बर्बाद हो गया। यह पानी आगे चलकर विष्णुगंगा तपोवन परियोजना तक पहुंचा तो वहां पहले से ही बने बांध में पानी भरा था, नतीजतन बांध की क्षमता से अधिक पानी हो गया। यही पानी तबाही मचाता हुए निचले क्षेत्रों की तरफ बढ़ता चला गया। चूंकि हिमखंड दिन में टूटा था, इसलिए जन व धन की हानि ज्यादा नहीं हुई।

सुश्री उमा भारती ने 24 ऊर्जा संयंत्रों पर रोक के मामले में सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई के दौरान 2016 में जल संसाधन मंत्री रहते हुए केंद्र सरकार की इच्छा के विपरीत शपथ-पत्र के जरिए यह कहने की हिम्मत दिखाई थी कि उत्तराखंड में अलकनंदा, भागीरथी, मंदाकिनी और गंगा नदियों पर जो भी बांध एवं जल विद्युत परियोजनाएं बन रही हैं, वे खतरनाक भी हो सकती हैं। इसके विपरीत पर्यावरण और ऊर्जा मंत्रालय ने एक शपथ पात्र में कहा कि बांधों का बनाया जाना खतरनाक नहीं है। देश में कुल बांध की संख्या 5745 हैं। इनमें से संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट ने 1115  बांधों की हालत खस्ता बताई है। उत्तराखंड में हिमखंडों के टूटने से जो त्रासदियां सामने आ रही हैं, उस परिप्रेक्ष्य में भी नए बांधों के निर्माण से बचने की जरूरत है।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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