न्यूज चैनल : वो कुछ और है पत्रकारिता नहीं - PRATIDIN

आज देश के ज्यदातर न्यूज चैनलों की रुचि उन खबरों के प्रसारण में नहीं है जिससे एक जीते-जागते प्रजातंत्र का विकास हो । वर्तमान अर्थतंत्र के तर्कों में किसी भी तरीके से पैसा कमाने की मानसिकता और सत्तारूढ़ सरकार से नजदीकी बनने का अबसर ही न्यूज चैनलों मुख्य उद्देश्य बन गया है |आज  ऐसे समय में जब विरोध की आवाज लगभग अपराध बन गई है और नित नए तमाशों से जनमानस पर सामूहिक सम्मोहन बनाया जा रहा है| ऐसे में अब सत्य की पक्षधरता के स्थान पर एक ऐसी जहरीली संस्कृति फल-फूल रही है, जो किसी प्रजातंत्र दम  घोटने में सक्षम है ।

मेरे एक मित्र अपने साथ हुए कथित सरकारी पक्षपात की कहानी टेलीविजन पर चलते कार्यक्रमों के माध्यम से प्रसारित कराने के अनुरोध ने मुझे इस तथ्य का दर्शन कराया कि न्यूज चैनलों पर  “नैतिक और बौद्धिक रूप से अधकचरे स्टार एंकर्स और विभिन्न राजनीतिक दलों से आए प्रवक्ताओं के बीच होने वाले डायलाग कहीं से भी आकलनकारी न होकर मानसिक हिंसा पैदा करने के कारक हैं।“ 

आप शायद इस बात को कभी न भूल पायें | एक टेलीविजन बहस में कांग्रेस प्रवक्ता राजीव त्यागी को भाजपा के संबित पात्रा से गर्मागर्म वाद-विवाद के बाद दिल का दौरा पड़ा था और उनकी अकाल मौत हो गई। इस वाकये ने टेलीविजन जनित उस दुष्टता पर नया विमर्श छेड़ दिया है, जिसका पोषण इन दिनों किया जा रहा है। टेलीविजन पर आने वाली बहसों और राजीव त्यागी की मौत के बीच संबंध को कोई कैसे रफा-दफा कर सकता है? फिर भी कोई इससे बचने का कोई रास्ता नहीं दिखा पा रहा है |

इन दिनों बहस की बजाय जहरबुझे शब्द, व्यक्तिगत तंज और ढर्रे के प्रत्यारोप ही दृष्टव्य हैं। जैसे अगर कांग्रेस राफेल के मुद्दे को उठाएगी तो भाजपा का प्रवक्ता बिना देर किए बोफोर्स रिश्वत कांड का जिक्र बीच में ले आएगा, यदि कांग्रेस गुजरात दंगों की बात करेगी तो भाजपा 1984 के सिख नरसंहार को याद दिलाना नहीं भूलती। ऐसे में उन महान आत्माओं को भी घसीट लिया जाता है जो अपना श्रेष्ठ देश को दे गये हैं| इस वाद-विवाद से धर्मनिरपेक्षता, राष्ट्रवाद और विकास पर कोई समझ विकसित नहीं होती न कोई निष्कर्ष समाज के सामने आता है| हद तो तब होती है,जब न्यूज चैनल पुलिस और CBI  कि तरह जाँच एजेंसी और न्यायालय की भूमिका में आ जाते हैं |

आज गंभीर पत्रकारिता घाटा भुगत रही है, सनसनी को बढ़ावा दिया जा रहा है | बहसें वाक्युद्ध से भरी हैं,  जैसे देश को दोफाड़ करना उनका मकसद हो, हिंदू बनाम मुस्लिम, राष्ट्रभक्त बनाम देशद्रोही, हिंदुत्व बनाम वाम, उदारवाद का ‘छद्म धर्मनिरपेक्ष।आजकल यही परोसा जा रहा है, क्योंकि इस तरह के कार्यक्रम परोसने पर मीडिया कंपनियों को दर्शकों के आलोचनात्मक आकलन का खतरा नहीं रहता। मत भूलिए यह सब जनता की सामूहिक चेतना को कुंद बनाकर न्यून करने की गरज से है। यह सब इस बात के साक्षात संकेत है की न्यूज चैनल किस दौर से गुजर रहे और जनमानस को कितना मानसिक आघात दे रहे हैं । बतौर सजग नागरिक हमें इस विद्रूपता का संज्ञान लेते हुए विरोध करना होगा ताकि सार्वजनिक संचार माध्यमों पर शालीनता बनी रह सके। 

आखिर समाज इन एंकरों का पोषण क्यों कर रहा हैं? समाज ही तो इन चैनलों को जिंदा रखे हुए हैं, ऐसा आभास देता है की वो राजनीतिक मुक्केबाजों का वाक्युद्ध  सुने बिना जिन्दा नहीं रह पायेगा । राजनीति ही धर्म, जाति और वर्ग को केंद्र बनाकर सामूहिक भावना को भड़काने का पर्याय बन चुकी है और सत्ताधीश झूठ को प्रचार के दम पर  हर कुछ को सच बनाने को उतारू हैं। समाज हर शाम यही तो देख रहा है। वास्तव में समाज  ने खुद को असभ्य संवाद और राजनीतिक मुक्केबाजी का व्यसनी बना लिया है।

अब फिर से इस मंथन के उद्गम पर आता हूँ |मेरे मित्र इन दिनों एक सनसनी खेज मामले का परायण करने वाले न्यूज चैनल से अपने साथ हुए पक्षपात पर प्रकाश डालने में मेरा सहारा लेना चाहते हैं | उस चैनल की कार्यप्रणाली चैनल में कार्यरत दूसरे मित्र ने बताई तो मुझे पता चला कि वो सब तो कुछ और है पत्रकारिता नहीं |
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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