अब देश का भविष्य : खेती और परपरागत व्यवसाय ही / EDITORIAL by Rakesh Dubey

सरकारें  भले ही कुछ भी दावे करें, हकीकत यह है कि पिछले पांच महीनों में कोविड महामारी के भय ने आशंकित लोगों को महामारी और अनिश्चय की ऐसी पीड़ा दी है कि जिससे आज देश की बड़ी आबादी अनिश्चय के भंवर में जीने को मजबूर है। ठिकाने की तलाश में इस देश की बड़ी आबादी जिसे कार्यशील युवा पूंजी कहा जाता है, अपने जीवन को नया अर्थ देने के लिए न जाने कहां-कहां की खाक छान आयी। वैधानिक रास्ता नहीं मिला तो अवैध कबूतरबाजों के पंखों पर बैठकर सात समन्दर पार की खाक भी छानी, लेकिन सब व्यर्थ ,उसे  जीने के अहसास कहीं नहीं मिला। अपनी जड़ों से उखड़कर कहीं भी जुड़ न पाने का यह दर्द केवल इस देश के बीस प्रतिशत लोगों को ही नहीं है, जिनकी संख्या करीब तीस करोड़ बन जाती है। उन्हें ज्यादा है जो रोज आधे पेट भोजन पर गुजर-बसर कर रहे है।

इस कोविड -१९ ने एक सच, भारत की जनता के सामने रख दिया है कि “भारत की अपनी मूल प्रवृत्ति खेती किसानी है | इस ओर लौटने अतिरिक्त हमारे पास भविष्य में कोई विकल्प नही  होगा। प्रकृति केन्द्रित विकास और परम्परागत व्यवसाय ही भविष्य की नींव होंगे |”

एक समय था, जब भारत की तीन-चौथाई आबादी  धरती से जुडी थी और  खेती किसानी ही  करती थी। देश में अधिसंख्य लोग ग्रामीण संस्कृति को अपना कर अपने परपरागत व्यवसाय पर जीवित  थे। भौतिकवाद की चकाचौंध ने लोगों का विश्वास अपनी धरती से हटा दिया। कृषि जीने का ढंग नहीं, मात्र एक अलाभप्रद धंधा हो गयी।  अन्नदाता किसान का विश्वास खो देने का यह संकट इतना गहरा हो गया कि अब केवल देश की आधी जनता ही कृषि और सहकारी धंधों में अर्थ खोजती रह गयी है। वह अर्थ भी इतना व्यर्थ हो गया कि कृषक संस्कृति ने देश की सकल घरेलू आय में पचास प्रतिशत की जगह मात्र उन्नीस प्रतिशत योगदान देना प्रारंभ कर दिया। कृषि में निवल निवेश शून्य हो गया। इसके लिए हरित से लेकर नीली तक रंगबिरंगी क्रांतियों के नारों के बावजूद कृषि विकास दर मात्र दो प्रतिशत तक सिमट गयी। आज कृषि संस्कृति की ओर लौटने की बात कहने वाले भी इस वर्ष के लिए उसकी विकास दर की कल्पना चार प्रतिशत से ऊपर नहीं कर पाये। जबकि औद्योगिक क्रांति और विदेशी निवेश के आधार स्तंभों पर खड़ी भारतीय अर्थव्यवस्था दस प्रतिशत आर्थिक विकास दर का सपना देखकर उसके स्वत: स्फूर्त हो जाने की कल्पना कर रही है।

देश के युवा को नव शिक्षण और प्रशिक्षण के नाम पर शहरों और कस्बों में उभर आयी अकादमियां पहले गांवों से शहरों की ओर, और फिर शहरों से निराश हो विदेशों की ओर पलायन का विकल्प दे रही हैं। आंकड़ों के अनुसार लगभग डेढ़ करोड़ युवा  हर वर्ष एक वैकल्पिक सपनीले जीवन की तलाश में पहले शहरों और फिर वैध-अवैध पलायन के सहारे विदेशों की ओर पलायन कर रहे हैं। देश में गांव के गांव खाली हो गये,और हो रहे हैं |

विश्वभर में कोरोना महामारी के कारण भारतीयों के लिए  डॉलर और पाउंड क्षेत्र ने तो संक्रमण से भयभीत होकर सबसे पहले अपने दरवाजे बंद किये, फिर तेल उत्पादक देशों ने भी अपना संकट भयावह होता देख उन्हें अजनबी बना दिया। ये लोग सामूहिक रूप से वंदेमातरम् कहते हुए बमुश्किल अपने देश लौटे हैं ।इधर जिन  उद्योग धंधों ने गांवों से आये करीब तेरह करोड़ लोगों को अपने साथ जोड़ रखा था। उन्हें अब तालाबन्दी और बढ़ती मन्दी उन्हें वापसी का रास्ता दिखाने लगी।ये पिछले बरसों में बेहतर जिंदगी की तलाश में वे अपने गांवों से पलायन करके यहां आये। अब रोजी-रोटी के लिए तरस जाने की हालत ने उन्हें फिर अपने गांव की ओर पुन: पलायन की राह दिखा दी है । समाज शास्त्रियों ने पूरे देश में ४८  जिलों का सर्वेक्षण किया तो पाया कि अनुदान योजनाओं की घोषणाओं के आडम्बर के बावजूद ग्रामीण संस्कृति के पुनर्निमाण के चिन्ह नहीं हैं। घर लौटे प्रवासियों के लिए घोषणाओं के बावजूद नये कार्य के आसार नहीं हैं, और वर्तमान जीर्णशीर्ण अर्थव्यवस्था उनके अयाचित बोझ से चरमराने लगी है।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
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