खाकी वर्दी के रुतबे में / EDITORIAL by Rakesh Dubey

यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि पुलिस सुधार की तमाम कोशिशों के बावजूद आज भी ऐसी आपराधिक हरकतों की रोकथाम नहीं हो पा रही है। लॉकडाउन की अवधि में पुलिस अत्याचार के मामले देशभर से सामने आये । मध्यप्रदेश में तो पुलिस ने बैतूल में मारपीट का नया आधार “साम्प्रदायिक पहचान” गढ़ लिया। इसको लेकर मध्यप्रदेश में आन्दोलन की सुगबुगाहट है। तमिलनाडू में तो जो कुछ हुआ उस कलंक कथा को सुन रोंगटे खड़े हो जाते। तमिलनाडु में पिता और पुत्र- जयराज एवं बेनिक्स- की पुलिस हिरासत में हुई जघन्य हत्या से पूरे देश में क्षोभ और क्रोध है तथा लोग न्याय की मांग कर रहे हैं। इसी राज्य में एक और मौत का मामला सामने आया है, जिसमें कुछ दिनों पहले पीड़ित युवक की पुलिसकर्मियों ने बेरहमी से पिटाई की थी और तब से उसकी तबियत बेहद खराब चल रही थी। इस  पिता-पुत्र की हत्या ने देश का ध्यान एक बार फिर पुलिस हिरासत में होनेवाली मौतों की ओर खींचा है।

देश में साल में औसतन 100-140 मौतें हर साल पुलिस हिरासत में होती है। आधिकारिक रिपोर्ट आने में साल भर लग जाता । एक रिपोर्ट के मुताबिक 2019 में 125  लोगों की मौत पुलिस हिरासत में हुई है, ये आंकड़ा दिसम्बर का है। 2017 में यह संख्या 100 थी, सरकारी अभिकरण राष्ट्रीय क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि 2010 से 2015 के बीच पुलिस हिरासत में 591 मौतें हुई थीं।

पुलिस हिरासत से ज्यादा खतनाक पुलिस में पैठ रही साप्रदायिक मानसिकता है। 23 मार्च को लॉक डाउन के दौरान मध्यप्रदेश में एक अधिवक्ता दीपक बुन्देले के साथ अस्पताल जाते समय पुलिस ने मारपीट की। मारपीट का कारण लॉक डाउन तो कहा गया साथ ही यह भी कहा गया दाढ़ी होने के कारण उन्हें मुसलमान समझने की गलतफहमी हो गई थी। ये तथ्य जाँच के दौरान सामने आये । उत्तर प्रदेश में कई मामलों में ऐसे तथ्य सामने आये हैं।

ये तथ्य स्पष्ट इंगित करते हैं कि सरकारों और पुलिस महकमे के आला अधिकारियों के दावे खोखले हैं। अक्सर ऐसा होता है कि संदिग्ध परिस्थितियों में हिरासत में हुई मौतों की वजह आत्महत्या या कोई अन्य बीमारी बता दी जाती है। इस तरह से जांच-पड़ताल की गुंजाइश भी खत्म हो जाती है। सरकारों और अधिकारियों द्वारा अपनी बदनामी से बचने के लिए थानों की दीवारों के भीतर के अपराधों या बड़ी खामियों पर परदा भी डाला जाता है।

पुलिस अभिरक्षा या पुलिस की पिटाई से मौतें देश के अधिकतर राज्यों में होती हैं। पिछले साल हिरासत में मौतों के सबसे अधिक मामले उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, पंजाब और बिहार से आये थे, पर मध्य प्रदेश, गुजरात, दिल्ली, ओडिशा, झारखंड आदि राज्य भी बहुत पीछे नहीं हैं।

2019 में मारे गये 125 लोगों में 93 की मौत पुलिस यातना के कारण होना सामने आया है शेष के लिए अन्य वजहें बतायी गयी हैं। यदि इन मृतकों की सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि को देखें, तो कुछ को छोड़कर सभी गरीब और वंचित वर्गों से थे तथा इनमें से कई लोगों को मामूली अपराधों के आरोप में हिरासत में लिया गया था। 

देश में प्रचलित कानून के हिसाब से तो गिरफ्तारी और हिरासत में लेने के अनेक नियम बने हुए हैं तथा पकड़े गये लोगों को अदालत के सामने जल्दी पेश करने स्थाई आदेश भी है, लेकिन पुलिस अपनी वर्दी की ताकत को ही सबसे बड़ी और अंतिम अदालत समझने की मानसिकता से काम करती है। ऐसे में इन आदेश और व्यवस्थाओं की कोई अहमियत नहीं रह जाती है। हिरासत में होनेवाली हत्याओं के लिए कभी कभार कोई पुलिसकर्मी दंडित होता है और उच्च न्यायालय से छूट जाता है। इससे आपराधिक मानसिकता वाले पुलिसकर्मियों का हौसला बढ़ता है। प्रकारांतर में पुलिस का यही रवैया फर्जी मुठभेड़ों, प्रभावशाली लोगों की आज्ञा मानने तथा सड़क पर साधारण लोगों से जोर-जबरदस्ती के रूप में भी सामने आता । सरकार और अदालतों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि ऐसे मामलों की सही जांच हो और दोषी पुलिसकर्मी दंडित हों।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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