देश की सबसे बड़ी और सरकार की बहुचर्चित प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना (पीएमएफबीवाई) से इसके अंशधारकों किसानों का भरोसा कम होता जा रहा है। हालांकि हाल में इसके स्वरूप में कुछ बदलाव किया गये है, ये बदलाव मांग बढ़ाने वाले साबित हो सकते हैं। पश्चिम बंगाल, बिहार, पंजाब, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और झारखंड के रूप में छह राज्यों ने पहले ही इससे बाहर होने का निर्णय ले लिया है और राजस्थान, और महाराष्ट्र जैसे कुछ अन्य राज्यों में इस विषय पर चर्चा चल रही है। तेलंगाना और झारखंड ने फरवरी में बदलाव के बाद इस योजना से दूरी बना ली। मध्यप्रदेश की मजबूरी साथ चलने की है, वैसे किसान पुत्र के इस राज्य में भी किसान सुखी नहीं है।
अपवाद छोड़ दें तो लगभग सभी राज्यों की शिकायत है कि बीमा कंपनियों द्वारा वसूला जा रहा प्रीमियम बहुत अधिक है। कृषि क्षेत्र के बजट का बड़ा हिस्सा इस योजना में जा रहा है। ऐसे में राज्य किसानों की उत्पादन संबंधी क्षतियों का ध्यान रखने के लिए अपनी व्यवस्था को प्राथमिकता दे रहे हैं। इसके अलावा बीमा कंपनियां, खासतौर पर निजी बीमा कंपनियां भी इस योजना के संचालन को लेकर बहुत उत्सुक नहीं हैं। कंपनियों को कृषि बीमा कारोबार वाणिज्यिक रूप से आकर्षक नहीं लग रहा है। उन्हें व्यावहारिक रूप से भी इसमें दिक्कत आ रही है। कंपनियों को दोबारा बीमा करने वाला तलाशने में भी समस्या आ रही है। इसके परिणामस्वरूप उनमें से कई ने इस योजना को त्याग दिया है। पैनल में शामिल १८ बीमा कंपनियों में से केवल १० ही मौजूदा खरीफ सत्र में इस योजना के तहत बीमा करने के लिए उपलब्ध हैं।शेष मैदान छोड़ गई हैं।
एक और बीमा कम्पनियां नाखुश है तो दूसरी ओर किसानों को लग रहा है कि उन्हें पर्याप्त फसल बीमा नहीं मिल पा रहा है। हालांकि वे नाम मात्र का प्रीमियम भुगतान करते हैं। रबी फसल में उन्हें कुल तयशुदा राशि का१.५ प्रतिशत , खरीफ में २ प्रतिशत और वाणिज्यिक तथा बागवानी फसलों के लिए ५ प्रतिशत राशि प्रीमियम के रूप में चुकानी होती है। शेष प्रीमियम का भुगतान बीमांकिक आधार पर राज्य और केंद्र सरकारों द्वारा किया जाता है। हालांकि अब केंद्र ने अपनी हिस्सेदारी कम करी दी है। किसान इस योजना में इसलिए भी रुचि नहीं ले रहे हैं, क्योंकि नुकसान की क्षतिपूर्ति बहुत कम है, भुगतान में देरी होती है और बिना ठोस वजह के दावे नकार दिए जाते हैं। इस बात की पुष्टि कुछ सर्वेक्षण करने वालों ने भी की है। भारतीय नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक ने भी एक हालिया रिपोर्ट में कहा है कि किसान पुरानी फसल बीमा योजनाओं में अधिक बेहतर स्थिति में थे। औसतन देखा जाए तो बमुश्किल३० से ३५ प्रतिशत किसान ही फसल का बीमा करते हैं। उनमें से अधिकांश वे हैं जिन्होंने बैंक से कर्ज ले रखा है और जिनके लिए बीमा जरूरी है।अन्य किसान इसे अकारण खर्च मानते हैं।
वैसे योजना के डिजाइन में हाल में कुछ बदलाव किए गए हैं, जो प्रथम दृष्टया इसे लुभावना बनाने वाले दिखते हैं लेकिन दरअसल वे अनुत्पादक साबित हो सकते हैं। मसलन किसानों को योजना में अनिवार्य के बजाय स्वैच्छिक भागीदार बनाना। इससे योजना को अपनाने वालों की तादाद घटेगी। वर्षा आधारित फसलों के लिए प्रीमियम सब्सिडी में केंद्र की हिस्सेदारी ३० प्रतिशत तथा सिंचित फसलों के लिए २५ प्रतिशत कर दी गई जबकि पहले यह सभी फसलों के लिए ५० प्रतिशत थी। इससे राज्यों का वित्तीय बोझ बढ़ेगा। केंद्र सरकार ने पहले किसान कल्याण की इस अहम योजना का ९० प्रतिशत सब्सिडी बोझ वहन करने की इच्छा जताई थी लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इन तमाम बातों को देखते हुए सरकार को पीएमएफबीवाई की समीक्षा करनी चाहिए और इस दौरान सभी अंशधारकों को भी शामिल करना चाहिए। दूसरा विकल्प यह है कि किसानोंं के नुकसान की भरपाई का काम राज्यों पर छोड़ दिया जाए। केंद्र प्राकृतिक आपदा की तर्ज पर वित्तीय सहायता मुहैया करा सकता है।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।