भारत-चीन रिश्ते एक यह दृष्टि भी / EDITORIAL by Rakesh Dubey

भारत-चीन रिश्तों को परिभाषित करने वाला तालमेल अब लगभग भंग हो चुका है। जरा सोचिये, इस मतैक्य के प्रमुख तत्त्व क्या थे? जब ध्यान से सोचेंगे,कुछ ऐसी बातें नजर आयेंगी जो वर्तमान परिदृश्य में ध्यान में रखना जरूरी हैं।

जैसे कभी भारत चीन के लिए खतरा नहीं था और न अब है इसके विपरीत चीन का दृष्टिकोण हमेशा भारत के लिए, संदेहास्पद रहा है। एशिया महाद्वीप और समूचे विश्व में दोनों देशों की प्रगति के लिए पर्याप्त गुंजाइश थी पर चीन ने भारत को बाज़ार समझा। चीन ने हमेशा भारत से आर्थिक अवसर समेटे। इन बातों के चलते दोनों देश सीमा विवाद का राजनीतिक हल चाह रहे थे ताकि वे साझा हितों वाले तमाम वैश्विक मुद्दों पर मिलकर काम कर सकें। अब ये बातें खटाई में पडती नजर आ रही हैं।

2005 में चीन के प्रधानमंत्री वेन च्यापाओ की भारत यात्रा के दौरान सहयोग की जो बातें साफ नजर आई वे 2009 के बाद से यह लगातार छीज रही थी। आखिरी बार भारत और चीन 2009 कोपनहेगन में आयोजित जलवायु परिवर्तन शिखर बैठक में साथ नजर आये। इसके विपरीत 2010 में च्यापाओ की भारत यात्रा के समय यह बदलाव तब नजर आया जब उन्होंने कहा कि सीमा विवाद हल होने में लंबा समय लगेगा। 2015 में पेरिस जलवायु परिवर्तन सम्मेलन के दौरान अमेरिका और चीन की बातें समझौते का आधार बनीं। भारत तब चीन के लिए उतना अहम नहीं रहा था। 

चीन ने खुद को अमेरिका के सामने मानक के रूप में पेश करना शुरू कर दिया और अन्य उभरते देशों के साथ अपने रिश्ते कायम करने लगा। अब एशियाई तथा विश्व स्तर पर भी चीन के लिए भारत के साथ रिश्ते उतने अहम नहीं रहे थे। चीन तब भी मानता था और अब भी मानता है कि एशिया में केवल चीन के विस्तार और उभार की गुंजाइश है, भारत के लिए नहीं। अब तो मतैक्य का पूरी तरह अंत हो गया है। हालांकि इस बीच भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग के बीच शिखर बैठकों के कई दौर हुए। दरअसल चीन अपने इरादे छिपाने में कामयाब रहता है और विरोधियों को आश्वस्त होने देता है। यह उसकी फितरत है |

इस फितरत से अलहदा चीन का भारत को नीचा दिखाने की कोशिश भी एक अतिरिक्त वैचारिक पहलू भी है। वह भारत की लोकतांत्रिक राजनीति को अस्तव्यस्त और नाकाम दिखाने के साथ-साथ यह दिखाना चाहता है कि सत्ता का चीन मॉडल अधिक श्रेष्ठ है।

चीन का अधिनायकवादी शासन महामारी के उभार को चिह्नित करने में नाकाम रहा और उसने दुनिया को पारदर्शी तरीके से इसके खतरों से अवगत नहीं कराया। एक उदार लोकतांत्रिक देश में ऐसा करने के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता था, परंतु चीन ने अत्यंत कड़ाई से इस समस्या से निपटते हुए अपनी इस नाकामी को ढक दिया। जिसे दुनिया को चीन के बेहतरीन मॉडल की एक खतरनाक नाकामी के रूप में देखना था, वह महामारी से निपटने की शानदार सफलता के प्रदर्शन में बदल दिया गया।

चीन का मुकाबला करने के लिए यह आवश्यक है कि हमारे उदार लोकतंत्र और भारतीय संविधान में उल्लिखित मूल्यों के प्रति भरोसा कायम किया जाए। यह खेद की बात है कि हमारे देश में चीन को मॉडल मानकर उसका अनुकरण करने की प्रवृत्ति रही है। लगातार ऐसा सुनने में आता है कि लोकतंत्र होने के नाते भारत पीछे रह गया। बगैर व्यक्तिगत स्वतंत्रता को त्यागे देश के बहु-सांस्कृतिक, बहुभाषीय, बहुधार्मिक और बहुजातीय समाज का बेहतरीन प्रबंधन करना हमारी बहुत बड़ी सफलता है। यह हमारी बहुत बड़ी ताकत है।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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