सरकार ! इन गैस पीड़ितों का भी, भोपाल जैसा हाल न हो / EDITORIAL by Rakesh Dubey

भोपाल। विकास के पैमानों के मुंह पर थप्पड़ मारती हुई यह [विशाखापट्टनम] भारत की दूसरी गैस त्रासदी है। पहली को 36 बरस हो गये हैं। उस रात भोपाल में सडको पर ऐसे ही लाशें बिछी थीं। ऐसे ही मर्सिये उस समय के प्रधानमंत्री पढ़ रहे थे। तत्कालीन सरकार ने न्याय और मुआवजा दिलाने के नाम पर भोपाल के लोगों की लड़ाई लड़ने का अधिकार ले लिया था। आज तक किसी को मुआवजा नहीं मिला है। आज विशाखापत्तनम के जिस कारखाने में दुर्घटना हुई है, इसकी मालिक भी यूनियन कार्बाइड की तरह विदेशी कम्पनी है। कहने को यह केमिकल प्लांट एलजी पॉलिमर्स इंडिया प्राइवेट लिमिटेड का है। 1961 में बना यह प्लांट हिंदुस्तान पॉलिमर्स का था, जिसका 1997 में दक्षिण कोरियाई कंपनी एलजी ने अधिग्रहण कर लिया है। फिर कहानी, भोपाल की तरह होगी,पीड़ित विदेशी न्यायलय में मुकदमा नहीं लड़ पाएंगे। भारत की छोटी अदालतों में मुकदमे सालो चलेंगे और सरकार अपराधियों को हाजिर तक नहीं करा पाएँगी। 

भारतीय न्याय व्यवस्था की तस्वीर कल ही सेवा निवृत जस्टिस दीपक गुप्ता ने खींची है। उन्होंने कहा है कि “कोई अमीर सलाखों के पीछे होता है तो कानून अपना काम तेजी से करता है लेकिन, गरीबों के मुकदमों में देरी होती है।“ “अमीर लोग तो जल्द सुनवाई के लिए उच्च अदालतों में पहुंच जाते हैं लेकिन, गरीब ऐसा नहीं कर पाते। दूसरी ओर कोई अमीर जमानत पर है तो वह मुकदमे में देरी करवाने के लिए भी वह उच्च अदालतों में जाने का खर्च उठा सकता है।“ उन्होंने कहा कि न्यायपालिका को खुद ही अपना ईमान बचाना चाहिए। देश के लोगों को ज्यूडिशियरी में बहुत भरोसा है। मैं देखता हूं कि वकील कानून की बजाय राजनीतिक और विचारधारा के आधार पर बहस करते हैं। ऐसा नहीं होना चाहिए। ३६ बरस पहले भी यही हुआ था, गरीब का मुकदमा सरकार लड़ने गई थी नतीजा सबके सामने है। 

यूनियन कार्बाइड से निकली गैस मिथाइल आइसो सायनेट [ मिक ] थी। विशाखापत्तनम में निकली गैस स्टाइरीन है। जैसे मिक के बारे में पूरा पता आज तक नहीं चल सका है वैसे इसके बारे में जो अनुमान लगाये गये हैं, उसके अनुसार स्टाइरीन मूल रूप में पॉलिस्टाइरीन प्लास्टिक और रेज़िन बनाने में इस्तेमाल होती है। यह रंगहीन या हल्का पीला ज्वलनशील लिक्विड (द्रव) होता है। इसकी गंध मीठी होती है। इसे स्टाइरोल और विनाइल बेंजीन भी कहा जाता है| बेंजीन और एथिलीन के ज़रिए इसका औद्योगिक मात्रा में यानी बड़े पैमाने पर उत्पादन किया जाता है| स्टाइरीन का इस्तेमाल प्लास्टिक और रबड़ बनाने में होता है। इन प्लास्टिक या रबड़ का इस्तेमाल खाने-पीने की चीज़ें रखने वाले कंटेनरों, पैकेजिंग, सिंथेटिक मार्बल, फ्लोरिंग, डिस्पोज़ेबल टेबलवेयर और मोल्डेड फ़र्नीचर बनाने में होता है। भोपाल में भी प्रशीतन प्रणाली में गडबडी को आधार माना गया था, यहाँ भी इसी को मुद्दा बनाया गया है। 

स्टाइरीन की भाप अगर हवा में मिल जाए तो यह नाक और गले में जलन पैदा करती है| इससे खांसी और गले में तकलीफ़ होती है और साथ ही फेफड़ों में पानी भरने लगता है, अगर स्टाइरीन ज़्यादा मात्रा में सांस के ज़रिए शरीर में पहुंचती है तो यह स्टाइरीन बीमारी पैदा कर सकती है। इसमें सिरदर्द, जी मिचलाना, थकान, सिर चकराना, कनफ़्यूजन और पेट की गड़बड़ी होने जैसी दिक्क़तें होने लगती हैं। बीमारियों का यह समूह सेंट्रल नर्वस सिस्टम डिप्रेशन कहा जाता है. कुछ मामलों में स्टाइरीन के संपर्क में आने से दिल की धड़कन असामान्य होने और कोमा जैसी स्थितियां तक बन सकती हैं। स्टाइरीन त्वचा के ज़रिए भी शरीर में दाखिल हो सकती है| अगर त्वचा के ज़रिए शरीर में इसकी बड़ी मात्रा पहुंच जाए तो सांस लेने के ज़रिए पैदा होने वाले सेंट्रल नर्वस सिस्टम डिप्रेशन जैसे हालात पैदा हो सकते हैं। अगर स्टाइरीन पेट में पहुंच जाए तो भी इसी तरह के असर दिखाई देते हैं,स्टाइरीन की फ़ुहार के संपर्क में आने से त्वचा में हल्की जलन और आंखों में मामूली से लेकर गंभीर जलन तक हो सकती है। स्टाइरीन के संपर्क में आने से ल्यूकेमिया और लिंफ़ोमा का भी जोखिम बढ़ सकता है। 

अब सवाल सरकार से भोपाल हो विशाखापत्तनम सारी अनुमतियाँ विकास के नाम पर दी गई और दी जाती है। विदेश में ये कारखाने नहीं लगाये जाते दुर्घटना पर वहां की सरकार जनता की पैरोकार नहीं बनती। मुआवजे भारी और तुरंत मिलते हैं। भारत में ऐसा क्यों नहीं होता ? सरकार 36 साल पहले भी ऐसे मर्सिये पढ़ रही थी, आज भी। विकास के नाम पर बने जहरीले कारखाने बंद कीजिये, और बदलिए अपनी प्रवृत्ति जिससे इन गैस पीड़ितों का भी भोपाल जैसा हाल न हो। 
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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