घनी बस्तियां, बढ़ते मरीज और ये दुष्काल / EDITORIAL by Rakesh Dubey

भोपाल। भोपाल के वे वार्ड जिनमे जन संख्या घनत्व अधिक है में कोरोना ने ज्यादा पैर पसारे हैं। ”फिजिकल डिस्टेंसिंग”जैसे प्रतिरक्षात्मक उपाय का यहाँ कम उपयोग हुआ। इंदौर सहित रेड जोन में शामिल जिलो की कहानी भी इससे पृथक नहीं है। शारीरिक दूरी को कोरोना-संक्रमण के खिलाफ कारगर कवच माना तो गया, पर कारगर क्यों नहीं हो सका?  यह एक बड़ा सवाल है। जब यह माना गया कि “हम कोरोना वायरस के संक्रमण को थामना चाहते हैं, तो हमें आपसी संपर्क की कड़ी तोड़नी ही होगी। मगर अफसोस, देश का हर हिस्सा इस सतर्क व्यवहार को खुद में नहीं उतार सका।

तथ्य सामने आये हैं कि अनियोजित विकास के कारण पनपे अत्यधिक भीड़ भरे शहरों और झुग्गी-झोपड़ी वाले इलाकों का हाल बुरा रहा है। यही कारण है कि स्लम बहुल क्षेत्रों में आज कोविड-19 के मरीजों की संख्या लगातार बढ़ रही है। देश का उच्च और मध्य वर्ग पक्के मकानों में रहता है और वहां फिजिकल डिस्टेंसिंग का पालन कराना अपेक्षाकृत आसान है, जबकि देश की अधिकतर आबादी (यानी गरीब आबादी) शहरीकृत गांवों या शहरों की मलिन बस्तियों में छोटे-छोटे घरों में रहती है।

2011 की जनगणना के मुताबिक, देश में 2613 मलिन-बस्तियां हैं, जिसमे 1.2 करोड़ परिवार बसते हैं, लगभग 6.5 करोड़ लोग इन इलाकों में रहते हैं। दिल्ली में 15 प्रतिशत झुग्गी-झोपड़ियां हैं, तो कोलकाता में 30 प्रतिशत , चेन्नई में २९ प्रतिशत और बेंगलुरु में लगभग 10 प्रतिशत भोपाल और इंदौर में ये प्रतिशत क्रमश: 9 और 11 ले लगभग है । जिस तरह से महाराष्ट्र के धारावी में कोरोना संक्रमण के मामले लगातार बढ़ रहे हैं, केंद्र व राज्य सरकारों की सबसे बड़ी चिंता यही है कि मलिन बस्तियों को कोविड-19 संक्रमण से बचाया जाए। सवाल है कि इन बस्तियों को बचाया कैसे जाए? आंकड़ों के मुताबिक, मलिन बस्तियों के लगभग 44. 84 प्रतिशत परिवारों के पास सिर्फ एक कमरा ही है, जिनमें से 20 प्रतिशत परिवारों में पांच लोग एक साथ रहते हैं, जबकि 15 प्रतिशत से अधिक एक कमरे वाले घर में छह से आठ सदस्यों का निवास है। यहां के घर आपस में हद से अधिक चिपके हुए हैं। हवाएं बमुश्किल हवाएं गुजरती हैं।, यहां के लोग अपना ज्यादातर वक्त कमरे से बाहर तंग गलियों ही में ही बिताते हैं।

2011 की जनगणना बताती है कि करीब 18 प्रतिशत तब खुले में शौच जाने को मजबूर थे, तब 15 प्रतिशत परिवार सार्वजनिक शौचालय इस्तेमाल करते हैं। जन संख्या वृद्धि के मान से यहाँ ये सुविधा और सिमटी होंगी | इस स्थिति में इन बस्तियों में भला किस तरह फिजिकल डिस्टेंसिंग संभव थी या है? अब लॉकडाउन के तीसरे विस्तार की संभावना अधिक है, सरकारों की तरफ से कुछ अतिरिक्त प्रयास किए जाने की जरूरत है। संभव हो, तो मलिन बस्तियों के आधे परिवारों को नजदीकी स्कूल या कॉलेज में रखे जाने की व्यवस्था होनी चाहिए। यहां उन्हें साफ-सफाई के प्रति जागरूक करना भी अपेक्षाकृत आसान होगा। फिर, इनके राशन-पानी की व्यवस्था भी की जानी चाहिए। सरकारी भंडार में खाद्यान्न की कोई कमी नहीं है। सरकार बेशक जरूरतमंदों तक इसे पहुंचाने की व्यवस्था कर रही है, पर वितरण-तंत्र की गड़बड़ियों के कारण कई जगहों से अव्यवस्था की खबरें भी आ रही हैं। जन-वितरण प्रणाली पर विशेष ध्यान देकर इन लोगों तक हर मुमकिन राहत पहुंचाई जा सकती है।

घर-घर जरूरी सामान उपलब्ध कराने का एक तंत्र भी फौरन बनाना होगा। यह विशेषकर हॉटस्पॉट इलाकों में इसलिए जरूरी है, ताकि लोग घरों से बाहर न निकलें। जिन कार्यालयों को काम करने की अनमुति मिल गई है, वहां कर्मचारियों की बीच पर्याप्त शारीरिक दूरी रखते हुए काम होना चाहिए। लोगों को भी यह समझना होगा कि संभावित लॉकडाउन-3 में यदि उन्हें कुछ राहत दी जाती है, तो फिजिकल डिस्टेंसिंग की कतई अनदेखी नहीं होना चाहिए। 

यह जंग बिना इन उपायों के नहीं जीती जा सकती। सरकारों को यह सुनिश्चित करना होगा कि अगर व्यापक तौर पर “फिजिकल डिस्टेंसिंग” का पालन हो रहा है, तो उन लोगों तक राशन-पानी पहुंचना चाहिए, जिनके लिए खुद बुनियादी जरूरतों को पूरा करना मुश्किल है। यह सुनिश्चित करना होगा कि कोई भी गरीब भूख या मानसिक तनाव से दम न तोडे़। घनी बस्तियों में फिजिकल डिस्टेंसिंग को लेकर सरकार को अपनी नीति नए सिरे से गढ़नी चाहिए।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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