बाज़ार का दबाव और कीटनाशक प्रबन्धन | EDITORIAL by Rakesh Dubey

जब-जब बाज़ार सरकार पर हावी होता है, राहत दूर खिसकती जाती है | कहने को केंद्रीय मंत्रिमंडल ने कीटनाशक प्रबंधन विधेयक,२०२०  को संसद में पेश करने की मंजूरी दे दी है, लेकिन अभी भिएसा  ऐसा लगता नहीं कि यह कृषि-रसायन क्षेत्र की अपेक्षाओं पर यह विधेयक खरा उतर सकेगा । यह विधेयक बड़ी मुश्किल से १२ वर्ष की लंबी अवधि में तैयार हो सका है और इस प्रक्रिया में संसद की स्थायी समिति तथा अन्य स्रोतों से मिली जानकारियों का भी इस्तेमाल किया गया है। मूल रूप से इसे किसानों के हितों की रक्षा के निमित्त तैयार होना था , परन्तु इस प्रयास में विधेयक उद्योग जगत के खिलाफ झुकाव वाला बन गया है।

जाली, खराब गुणवत्ता वाले या निष्प्रभावी कीटनाशकों के इस्तेमाल के कारण किसानों को होने वाले नुकसान की तेज क्षतिपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए विधेयक में ५०,००० करोड़ रुपये का एक विशेष कोष तैयार करने की बात शामिल है। विधेयक में सुझाव है कि इस फंड के लिए राशि डिफॉल्ट करने वाली कीटनाशक कंपनियों और केंद्र तथा राज्य सरकारों से सहयोग से जुटाई जाएगी। प्रतिबंधित या खराब गुणवत्ता वाले कीटनाशकों की आपूर्ति पर जुर्माने की राशि को बढ़ाकर ५० लाख रुपये करने तथा तीन से पांच वर्ष के कारावास का प्रस्ताव है। फिलहाल जुर्माने की राशि केवल २००० रुपये और तीन वर्ष की सजा का प्रावधान है। उत्पादन, व्यापार और कीटनाशकों के प्रयोग को केंद्रीय कीटनाशक बोर्ड की सहायता से विनियमित करने की बात कही गई है। इस बोर्ड में केंद्र, राज्य, किसान तथा अन्य अंशधारक होंगे। विधेयक की अन्य उल्लेखनीय बातों में पर्यावरण तथा स्वास्थ्य के अनुकूल ऑर्गेनिक कीटनाशकों की बात शामिल है। कीटनाशक क्षेत्र में लंबे समय से एक प्रभावी नियामकीय व्यवस्था की आवश्यकता महसूस की जा रही थी क्योंकिअभी  सन१९६८ का पुराना कीटनाशक अधिनियम लागू है जो  अक्षम साबित हुआ है। 

पिछले तीन दशकों में. कीटनाशक उद्योग का तेजी से विस्तार हुआ, जिसके चलते अनेक फर्जी, खराब गुणवत्ता वाले और खतरनाक रसायन चलन में आ गए। कहने को केवल ३०० के करीब कीटनाशक ही देश में उत्पादन एवं इस्तेमाल के लिए पंजीकृत हैं, लेकिन प्रचलित अपंजीकृत रसायनों की वास्तविक तादाद बहुत ज्यादा है। ऐसा इसलिए क्योंकि बिना पंजीयन के भी इनका उत्पादन और बिक्री की जा रही है, और उस पर कोई सीधा नियंत्रण नहीं है । कई खतरनाक कीटनाशक, जिन्हें विदेशों में प्रतिबंधित कर दिया गया है, उनका भारत में धडल्ले से इस्तेमाल हो रहा है है। इसके कारण हर वर्ष सैकड़ों की तादाद में खेतों में काम करने वाले लोगों की जान चली जाती है, फसल के नुक्सान का तो कहीं कोई आकलन  नहीं है।

कृषि क्षेत्र को विश्वास था कि नया कानून ऐसे घातक रसायनों के निर्माण और बिक्री पर अंकुश लगाएगा और मानकों को कड़ा करेगा। इसके विपरीत प्रस्तावित कानून के कारण कीटनाशक उद्योग के कुछ हलकों के मन में आशंकाएं भी उत्पन्न हो रही हैं। शोध और विकास से जुड़ी १६  फसल विज्ञान कंपनियों के संगठन द क्रॉपलाइफ इंडिया ने पहले ही यह मांग की है कि विधेयक को संसद की प्रवर समिति के पास भेजा जाए और इस क्षेत्र के विभिन्न विशेषज्ञों के साथ नए सिरे से विचार-विमर्श किया जाए। सन्गठन ने भी बाज़ार को प्राथमिकता देते हुए दंड प्रक्रिया संहिता १९७३ के लागू होने की व्यवस्था समाप्त करके कृषि कच्चे माल के निर्माण का अपराधीकरण समाप्त करने की भी वकालत की है। अजीब सा तर्क यह है कि उक्त प्रावधान से निवेश को लेकर नकारात्मक माहौल बनता है। 

वैसे विधेयक को मंजूरी के लिए भेजने से पहले सार्वजनिक राय -मशविरा की नीति को अपनाकर कई कमियों से बचा जा सकता था। विधेयक के बारे में जो सीमित जानकारी सामने आई उसके मुताबिक इसमें कृषि उपज में कीटनाशकों की मौजूदगी की जांच पर ज्यादा जोर देने की बात शामिल होनी है क्योंकि वह मानव जीवन, पालतू पशुओं और वन्य जीवों के लिए बड़ा खतरा उत्पन्न करता है। कीटनाशकों का बेतहाशा इस्तेमाल व्यापक पैमाने पर वायु, मृदा और जल प्रदूषण का कारक बन रहा है। ऐसे में प्रस्तावित कानून में केवल कम नुकसानदेह कीटनाशकों की बात नहीं होनी चाहिए बल्कि किसानों को इनके सावधानीपूर्ण प्रयोग की बात समझाने की बात भी  शामिल होनी चाहिए, जिससे  खेतों में इनके अवशेष न बचें और भूमि की उर्वरा शक्ति पर विपरीत प्रभाव न हो।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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