बजट : बड़ा सवाल सेहत का है | EDITORIAL by Rakesh Dubey

नई दिल्ली। देश का वर्ष 2020-21 का बजट आ रहा है।हर बार बजट आने के पूर्व देश के स्वास्थ्य मद में राशि आवंटन की चर्चा होती है। हर बार बजट पारित होता है, पर इस मद में कोई बढौतरी नहीं होती। आज भी हमारा देश भारत उन देशों में शामिल है, जहां स्वास्थ्य के मद में सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) के अनुपात में सबसे कम खर्च किया जाता है। हमारे देश में यह आंकड़ा 1.25 प्रतिशत के आसपास है।

पिछले कुछ सालों से स्वास्थ्य सेवा को बेहतर बनाने की दिशा में अनेक पहलें की गयी हैं और सरकार ने आगामी कुछ वर्षों में इस क्षेत्र में खर्च को बढ़ा कर जीडीपी का ढाई फीसदी करने का लक्ष्य निर्धारित किया है| आने वाला बजट बतायेगा कि सरकार ने इस मांग को कितनी गंभीरता से लिया है और इस विषयक क्या नीति तय की है| यहाँ विचार का विषय यह है कि यदि सकल घरेलू उत्पाद किन्ही कारणों से कम हुआ तो यह विषय विचार में रहेगा या नहीं |  केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने 15 वें वित्त आयोग के सामने पेश आकलन में बताया है कि प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा के लिए अगले पांच सालों में 5.38 लाख करोड़ रुपये की जरूरत है। इस निवेश से इस सेवा की 90 प्रतिशत मांगों को पूरा किया जा सकेगा|  सरकार द्वारा नीति-निर्धारण में एक बड़ी कमी यह होती है कि सरकार का ज्यादा जोर इलाज पर होता है, रोकथाम और जागरूकता के प्रसार पर कम ध्यान दिया जाता है| रोकथाम और जागरूकता के मामले में फर्जीवाड़े की भारी खबरे हैं।

इसके कारण विभाग भी यह मानने को मजबूर है कि कहीं कुछ गलत हो रहा है। इस विषय को रेखांकित करते हुए मंत्रालय ने कहा है कि इस कमी के कारण गैर-संक्रामक रोगों के मामले बहुत तेजी से बढ़ते जा रहे हैं. कैंसर, दिल की बीमारियां, डायबिटीज और सांस के रोग पुरुषों की 62 प्रतिशत और स्त्रियों की 52 प्रतिशत मौतों के लिए जिम्मेदार हैं। इनमें से 56 प्रतिशत मौतें असमय होती हैं। यदि प्राथमिक स्वास्थ्य की समुचित व्यवस्था रहे, तो इन मौतों को बहुत हद तक रोका जा सकेगा. इससे इलाज पर होनेवाले खर्च में भी भारी कटौती करने के साथ ऊपरी अस्पतालों पर मौजूदा दबाव को भी कमतर किया जा सकता है। आबादी का बड़ा हिस्सा गरीब और कम आमदनी के तबकों का है, इलाज के बड़े खर्च के कारण लाखों लोग हर साल गरीबी रेखा से नीचे चले जाते हैं।

सही मार्गदर्शन न होने से इस तरह से गरीबी और बीमारी का दुश्चक्र चलता रहता है. मामूली परामर्श व दवाओं से ठीक होनेवाले रोग भी हर साल लाखों लोगों की जान ले लेते हैं|  नेशनल हेल्थ प्रोफाइल रिपोर्ट के अनुसार, करीब ११  हजार लोगों के लिए एक सरकारी एलोपैथिक डॉक्टर है| यह अनुपात सुधरना चाहिए |  जो सरकारी चिकित्सा केंद्रों और अस्पतालों की संख्या भी बढ़ाने से ही सुधर सकता है | इस सुधर की  सख्त जरूरत है| 

अभी देश में 675 लोगों के लिए एक सहायक कर्मी की उपलब्धता है| जबकि हजार लोगों के लिए तीन कर्मियों का अनुपात होना चाहिए| कुछ माह पहले प्रकाशित अमेरिकी संस्था सेंटर फॉर डिजीज डाइनामिक्स, इकोनॉमिक्स एंड पॉलिसी की रिपोर्ट में तो डॉक्टरों की कमी छह लाख और सहायक कर्मियों की कमी 20 लाख तक आंकी गयी थी| ग्रामीण और दूर-दराज के क्षेत्रों में स्थिति बहुत खराब है| बजट में प्रावधान करते समय यह भी ध्यान रखने योग्य तथ्य है |

यह भी एक महत्वपूर्ण पहलु है कि जागरूकता व पैसे की कमी की वजह से अक्सर लोग रोग के शुरुआती चरण में उपचार नहीं कराते, जिससे रोग बढ़ता जाता है.| मंत्रालय ने अपने आकलन में चिकित्साकर्मियों की कमी दूर करने और संसाधनों की उपलब्धता सुनिश्चित करने को प्राथमिकता देने की बात जरुर कही है | उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार के उद्देश्यों व लक्ष्यों का संज्ञान लेते हुए स्वास्थ्य के मद में सरकार पर्याप्त राशि का आवंटन करेगी और इसकी झलक क्या आगामी बजट में भी देखने को मिलेगी? एक बड़ा सवाल है |
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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