दूरसंचार संकट : जरा पलट कर भी देखिये, जनाब ! | EDITORIAL by Rakesh Dubey

देश दूर संचार के संकट से गुजर रहा है | आज का दूरसंचार संकट काफी कुछ १९९८  जैसा ही है, पर सरकार पीछे पलट कर  नहीं देखना चाहती है | इस सरकार को वाजपेयी सरकार के दूरसंचार नीति दस्तावेज को पलट कर देखना चाहिए | वर्तमान  नियामकीय नीतियों का परिणाम शुल्क दरों को लेकर जंग छिडऩे एवं 'अपने पड़ोसी को गरीब बनाने' की रणनीति के रूप में सामने आया। ऐसा तब है जब अधिकतर लोगों को अच्छी एवं भरोसेमंद सेवाएं नहीं मिल पा रही हैं। इस तरह भारत में दूरसंचार सेवाओं की दरें बेहद कम होने की वजह से लंबे समय तक नहीं टिक सकती हैं। दरें इतने अधिक उपभोक्ताओं से अपेक्षित शुल्क से काफी कम हैं और लागत में घुमावदार कटौती की स्थिति आ सकती है। दरों का यह स्तर दूरसंचार सेवाओं के रखरखाव की भी भरपाई नहीं कर पाता है, दूरदराज के इलाकों में नेटवर्क बढ़ाना तो दूर की बात है। कम शुल्क वाले शहरी क्षेत्रों को अक्सर कम गुणवत्ता वाली सेवाओं का सामना करना पड़ता है जबकि कम आबादी वाले इलाके इन सेवाओं से वंचित ही हैं। उच्चतम न्यायालय के उस फैसले ने दूरसंचार ऑपरेटरों की मुश्किलें और बढ़ा दी हैं जिसमें स्पेक्ट्रम धारकों पर पिछली तारीख से समायोजित सकल राजस्व (एजीआर) लगाने के सरकारी रुख को सही बताया है।

स्पष्ट नीति न बना पाने वाली वर्तमान सरकार को वाजपेयी सरकार की तरह कदम उठाने के लिए संकल्पित होने की जरूरत है। दूरसंचार क्षेत्र एवं अर्थव्यवस्था में नई जान फूंकने के लिए सरकार को एक क्रांतिकारी हस्तक्षेप करना होगा। पीएमओ के अधिकारियों की दूरसंचार विभाग से मुलाकातों का सिलसिला कई महीनों से जारी है। अब हमें कुछ ऐसे निर्णायक कदमों की जरूरत है|

जैसे स्पेक्ट्रम उपयोग के लिए नीलामी शुल्क के बजाय राजस्व-हिस्सेदारी का तरीका अपनाया जाए। वर्ष १९९९  में भी स्पेक्ट्रम लाइसेंस शुल्क के लिए राजस्व हिस्सेदारी का रास्ता अपनाया गया था। ऐसा होने पर स्पेक्ट्रम का महज सरकारी राजस्व के बजाय संपर्क एवं प्रगति के एक सार्वजनिक संसाधन के तौर पर अधिक तर्कसंगत उपयोग हो सकेगा।अतिरिक्त स्पेक्ट्रम उपयोग शुल्क खत्म कर देने से विकास एवं वृद्धि के लिए संचार सेवाएं मुहैया कराई जा सकेगी और बाकी दुनिया की तुलना में भारत में क्षमता की खामी भी सुधार सकेगी। अगर अत्यधिक लाभ होता है या फंड को अनुचित राह पर डाला जाता है तो एक  अप्रत्याशित लाभ का प्रावधान भी रखा जा सकता है। नई तकनीकों को लागू करने वाली नीतियां लागू हों। मसलन, गूगल पिक्सल फोन का नवीनतम संस्करण भारत में इसलिए नहीं जारी किया जा सका है कि यहां पर ६० गीगाहट्र्ज सीमित बैंडविड्थ पर ही उपलब्ध है। इसी तरह ३ जी तकनीक के मामले में भारत पहले ही पिछड़ चुका है और स्पेक्ट्रम संपर्क में बड़ा बदलाव लाए बगैर ३ से ५ जी का लाभ उठाने में वर्षों लगेंगे। 

कुछ और उपाय भी हैं जैसे बढ़े हुए उत्पादन के लिए ब्रॉड बैंड मुहैया कराने के लिए स्पेक्ट्रम पूलिंग की जाए। इसे भू-स्थिति डेटाबेस चालित साझा स्पेक्ट्रम के जरिये अंजाम दिया जा सकता है जैसा कि यूरोप में लाइसेंसशुदा साझा स्पेक्ट्रम (एलएसए) या अमेरिका में प्राधिकृत साझा स्पेक्ट्रम (एएसए) के दौरान हुआ है। संभवत: स्पेक्ट्रम साझेदारी को ढांचागत क्षेत्र के प्रति कंसोर्टियम नजरिया और डिलीवरी के लिए बिना बंडल एवं उपयोग-आधारित लागत अपनाया जाए। नेटवर्क विकास एवं प्रबंधन जैसे आधारभूत ढांचे को सेवा से अलग कर ऐसा किया जा सकता है।एक और संभावना यह है कि दो-तीन एकीकृत कंसोर्टियम मौजूद हों जिसमें से हरेक के पास अपना आधारभूत ढांचा हो। इसके लिए अधिक पूंजी निवेश की जरूरत होगी।

सरकार को चाहिए की नीतियों एवं नियमों का खाका तय कर सरकार दूरसंचार उद्योग में समन्वयकारी, परामर्शकारी, लक्ष्य-उन्मुख कदम उठाए। दूरसंचार कारोबार में विविध सरकारी एजेंसियां शामिल होती हैं, मसलन दूरसंचार विभाग, इलेक्ट्रॉनिक्स एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय, ट्राई, वित्त और कानून मंत्रालय के अलावा राज्य सरकारें भी इसका हिस्सा होती हैं।मोबाइल टेलीफोनी के बगैर काम करना आज अविश्वसनीय नजर आता है। अपने लाभ के लिए दूरसंचार का इस्तेमाल करने वाले नेताओं के बजाय मौजूदा संदर्भों में ये मौके वर्षों तक छूट जाने की संभावना है, जब तक कि सरकार ठोस कार्रवाई का साहस एवं संकल्प न दिखाए।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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