बात-बात पर इंटरनेट बंद करने से क्या सब कुछ ठीक हो जाता है, पढ़िए इंटरनेट से खेलती सरकारों का चिट्ठा | NATIONAL ISSUES

नई दिल्ली। भारत में 120 करोड़ लोगों में से करीब 50 करोड लोग नियमित रूप से इंटरनेट का उपयोग करते हैं। उनके लिए इंटरनेट केवल सोशल मीडिया पर बने रहने के लिए जरूरी नहीं बल्कि इंटरनेट पर वह लोग दूसरे कई महत्वपूर्ण काम करते हैं। बच्चों की स्कूल फीस से लेकर हवाई जहाज की टिकट बुक करने तक इंटरनेट जरूरी है। कब शब्दों में कहें तो एक व्यक्ति की जिंदगी में इंटरनेट एक महत्वपूर्ण साथी बन चुका है जिसके बिना अब लाइफ बहुत मुश्किल भरी हो जाती है। भारत में सरकार यहां तक कि जिलों के कलेक्टर जब चाहे तब इंटरनेट बंद कर देते हैं। सवाल यह है कि क्या बात-बात पर इंटरनेट बंद कर देने से सब कुछ ठीक हो जाता है। कहीं ऐसा तो नहीं कि सब कुछ ठीक करने के चक्कर में काफी कुछ बिगड़ भी रहा है। एक तनाव कम करने के लिए दूसरा तनाव बढ़ाया जाना है। शांति की स्थापना के नाम पर लोगों की जिंदगी मुश्किल की जा रही है। 

मुद्दा बड़ा है और विचार जरूरी | भारत के प्रमुख सामाजिक मुद्दे

पूर्वोत्तर में एनआरसी लागू किए जाने और अब नागरिकता संशोधन कानून के आने के बाद से देश भर में इसके हिंसक विरोध-प्रदर्शनों के बीच पूर्वोत्तर के राज्यों से लेकर दिल्ली और यूपी में कई जगहों पर इंटरनेट रोक दिया गया। अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद से जम्मू-कश्मीर में इस साल अगस्त से इंटरनेट सेवाएं बाधित हैं। इंटरनेट शटडाउन की ये स्थितियां खास तौर तब बेचैन करती हैं, जब जिंदगी को चलाए रखने से जुड़ा तकरीबन हर काम इस पर निर्भर हो गया है। ऐसे में यह मांग उठती रही है कि इंटरनेट को मानवाधिकार माना जाए और सरकारें चाहें किसी भी कारण से मजबूर क्यों न हों, इंटरनेट सेवाओं पर पाबंदी न लगा सकें। ऐसे में सवाल है कि बरास्ता इंटरनेट सोशल मीडिया से फैलने वाली अफवाहों से प्रेरित हिंसा और अराजकता को थामने के लिए अगर सरकार-प्रशासन इंटरनेट को बैन न करे तो क्या करे? वहीं यह आपत्ति भी अपनी जगह जायज लगती है कि विरोध को दबाने के लिए इंटरनेट को रोकना एक दमनकारी उपाय है, लिहाजा सरकारों को इससे परहेज करना चाहिए।

इंटरनेट से खेलती सरकारों का चिट्ठा | भारत के राजनीतिक मुद्दे

इंटरनेट शटडाउन का मामला हमारे लिए खास तौर से इसलिए चिंता का विषय बन गया है, क्योंकि कुछ रिपोर्टों में भारत को इसका विश्व रिकॉर्ड बनाने के रूप में दर्ज किया गया है। जैसे एक संस्था- सॉफ्टवेयर फ्रीडम लॉ सेंटर (एसएलएफसी) की लिविंग इन डिजिटल डार्कनेस नामक रिपोर्ट का दावा है कि वर्ष 2018 में भारत में इंटरनेट सेवा बंद करने के कुल 134 मामले सामने आए थे, जो कि दुनिया में सबसे ज्यादा हैं। इसके बाद अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद जम्मू-कश्मीर में अगस्त से लेकर नवंबर तक लगभग 133 दिन तक इंटरनेट सेवा बंद रही थी जो विश्व रिकॉर्ड है। जम्मू कश्मीर के अभी भी कई हिस्सों में इंटरनेट सेवाएं बंद हैं। जम्मू-कश्मीर में यह अब तक का सबसे लंबा इंटरनेट बैन है। इससे पहले आठ जुलाई, 2016 में वहां आतंकी बुरहान वानी के मारे जाने के बाद चार महीने तक इंटरनेट बंद रखा गया था। यह आठ जुलाई 2016 से 19 नवंबर 2016 तक जारी रहा था। इस साल यानी 2019 में अयोध्या मामले में फैसला आने के बाद भी देश के कई हिस्सों में इंटरनेट बंद किया गया।

राज्यवार देखें तो जम्मू-कश्मीर (180 बार) के बाद बंगाल में लंबी अवधि तक इंटरनेट पर पाबंदी रही है। वहां गोरखालैंड राज्य की मांग को लेकर हो रहे प्रदर्शनों के दौरान 18 जून, 2017 से 25 सितंबर, 2017 तक करीब 100 दिन तक खास तौर से दार्जिलिंग में इंटरनेट सेवाएं रोकी गई थीं। इसके बाद राजस्थान में 67 बार तो यूपी में 2012 से अब तक 18 बार इंटरनेट बैन लगा है।

इंटरनेट बंद करने में भारत सबसे आगे | भारत के ज्वलंत मुद्दे

एसएलएफसी के मुताबिक संशोधित नागरिकता कानून बनने से पहले वर्ष 2019 में भारत में इंटरनेट शटडाउन के कुल 93 मामले सामने आ चुके थे, जिनकी संख्या अब बढ़कर 100 के करीब हो गई है। इसके अलावा अंतरराष्ट्रीय मैगजीन फोब्र्स की एक रिपोर्ट कहती है कि इंटरनेट पर प्रतिबंध लगाने में भारत दुनिया में सबसे आगे है। संस्था-स्टेट ऑफ इंटरनेट शटडाउंस की वेबसाइट के अनुसार भारत में 2015 में इंटरनेट बंद किए जाने के मात्र 14 ही मामले थे, जबकि 2016 में ये बढ़कर 31 हो गए। 2017 में 79 और 2018 में 134 बार इंटरनेट बंद किया गया। इन 134 में से 65 बार तो जम्मू-कश्मीर में ही इंटरनेट बंद किया गया।

दुनिया के दूसरे देशों में क्या होता है

इस साल 55 मामले जम्मू-कश्मीर के ही हैं। इंटरनेट शटडाउंस की रिपोर्ट कहती है कि इंटरनेट बैन लगाने वाली इस सूची में फिलहाल भारत ऊपर है। दूसरे नंबर पर पाकिस्तान (12 मामले), फिर इराक (7), यमन (7), इथियोपिया (6), बांग्लादेश (5) और इसके बाद रूस (2) का नंबर आता है। इंटरनेट शटडाउंस से अलग फोब्र्स की रिपोर्ट कहती है कि 2018 में पाकिस्तान में ऐसा 19 बार, जबकि बांग्लादेश में सिर्फ 5 बार हुआ। प्रतिबंध के दौरान मोबाइल पर चलने वाले इंटरनेट के मामले में स्थिति यह बनती है कि फोन में नेटवर्क तो होगा, उससे कॉल और एसएमएस किए जा सकेंगे, लेकिन फेसबुक, वाट्सएप, ईमेल और इंटरनेट से चलने वाली सेवाओं का इस्तेमाल नहीं हो सकेगा।

इंटरनेट बंद करने से तनाव नियंत्रित नहीं हो पाता

इसका प्रभाव सिर्फ आम जनजीवन पर नहीं पड़ता है, बल्कि जरूरी सूचनाओं का प्रवाह भी रुक जाता है। जैसे एक उदाहरण 12 दिसंबर, 2019 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ट्वीट का है जो उन्होंने असम के नागरिकों को संबोधित करते हुए किया था। इसमें उन्होंने असम के लोगों को आश्वस्त किया था कि उन्हें नागरिकता संशोधन विधेयक के पारित होने के बाद चिंता करने की जरूरत नहीं है, क्योंकि इससे उनके किसी भी अधिकार, अलग पहचान और संस्कृति पर कोई प्रहार नहीं किया गया है। जिस दिन प्रधानमंत्री ने असम के लोगों के लिए इंटरनेट के जरिये यह संदेश दिया, उस दिन वहां पर इंटरनेट ही नहीं था। उस दौरान असम, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश और त्रिपुरा समेत पूर्वोत्तर भारत में बड़े स्तर पर प्रदर्शन शुरू हो गए और प्रदर्शनों को देखते हुए राज्य सरकारों ने इंटरनेट सेवाओं पर पाबंदी लगा दी थी। लेकिन इंटरनेट शटडाउन से कारोबार भी बड़े पैमाने पर प्रभावित होता है।

इंटरनेट बंद करने से अब तक 213 अरब का नुकसान | भारत के मुद्दे

इसका एक आकलन एक वेबसाइट इंडियास्पेंड ने किया है। इस वेबसाइट के अनुसार 2011 से 2017 तक भारत में तकरीबन 16,000 घंटों तक इंटरनेट शटडाउन रहा। इस पाबंदी से देश को करीब 213.36 अरब रुपयों का नुकसान हुआ। इंटरनेट बैन से सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाले राज्यों में जम्मू-कश्मीर रहा है। वहां हालात ऐसे बने हैं कि लोग अपने जरूरी काम कराने के लिए श्रीनगर से बनिहाल जाते हैं, जहां इंटरनेट के माध्यम से वे अपने काम निपटाते हैं। बिजनेस को पूरी दुनिया में हुए नुकसान का एक आकलन न्यूयॉर्क टाइम्स ने किया है, जिसके मुताबिक जुलाई 2015 से जून 2016 के बीच इंटरनेट शटडाउन की वजह से पूरी दुनिया में ढाई अरब डॉलर का नुकसान हुआ।

पाबंदी की मजबूरी क्या है

यह एक अहम सवाल है, क्योंकि भारत समेत पूरी दुनिया में जहां कहीं भी इंटरनेट बैन की स्थितियां बनी हैं, वहां की सरकारों और प्रशासन ने यही दावा किया है कि अराजक हालात संभालने के लिए उन्हें मजबूरन ऐसा करना पड़ा। अफवाहों का प्रसार रोकने, शांति कायम रखने, दंगे हालात बेकाबू होने से रोकने और आतंकियों के आकाओं और मददगारों के नेटवर्क पर अंकुश लगाने के तर्क के साथ सरकार और प्रशासन इंटरनेट बैन करते रहे हैं। सरकारों का कहना है कि इंटरनेट या सोशल मीडिया के जरिये संवेदनशील सूचनाएं बाहर न भेजी जा सकें, गलत संदेशों, खबरों, तथ्यों और फर्जी तस्वीरों का प्रचार-प्रसार न हो सके, इसके लिए हालात संभलने तक इंटरनेट बैन ही एकमात्र रास्ता बचता है।

ऐसा नहीं है कि यह उपाय असंवैधानिक या गैरकानूनी है, बल्कि भारत में इसके लिए दो कानूनी प्रावधान और एक नियमावली हैं। ये हैं-कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसीजर 1973 (सीआरपीसी), इंडियन टेलीग्राफ एक्ट 1885 और टेंपररी सस्पेंशन ऑफ टेलीकॉम सर्विसेज (पब्लिक इमर्जेंसी या पब्लिक सेफ्टी) रूल्स 2017, जिनके आधार पर सरकारें राज्यों या जिलों में किसी उपद्रव और खतरे की स्थिति में शांति बनाए रखने और अफवाहों के प्रसार पर अंकुश लगाने के मकसद से इंटरनेट शटडाउन करती हैं। प्रशासन का तर्क है कि किसी बवाल की स्थिति में अगर इंटरनेट की सेवाएं बहाल रहती हैं तो शरारती तत्व सोशल मीडिया के मंचों का इस्तेमाल कर झूठी तस्वीरें और वीडियो आम लोगों में फैला देते हैं, जिससे हालात विस्फोटक हो जाते हैं।

हाल में जामिया यूनिवर्सिटी के छात्रों के मामले में ऐसी झूठी तस्वीरों और वीडियो की सोशल मीडिया में भरमार रही। एक तस्वीर में तो दिल्ली पुलिस के कर्मियों को बस में आग लगाते हुए दिखाया गया, जबकि हकीकत यह थी कि वह सिपाही एक कैन में पानी भरकर बस की आग बुझा रहा था। जाहिर है कि किसी विरोध-प्रदर्शन के दौरान वहां भीड़ के हिंसक हो जाने और गलत सूचनाओं के बल पर भीड़ समर्थक लोगों के हिंसक हो जाने की सर्वाधिक आशंका रहती है। ऐसे में छोटी अवधि का इंटरनेट शटडाउन किसी नुकसान के बजाय हालात संभालने में ज्यादा मददगार साबित होता है।

इंटरनेट पर पाबंदी के तौर-तरीके

यह एक आम जिज्ञासा है कि आखिर सरकार-प्रशासन किसी इलाके में इंटरनेट सेवाओं को किन तरीकों से रोकते हैं। दूरसंचार के क्षेत्र में ज्यादा निजी कंपनियों की मौजूदगी की स्थिति में अमूमन माना जाता है कि सरकार के लिए ऐसा करना मुमकिन नहीं होगा, क्योंकि उसके पास न तो निजी कंपनियों को सीधे तौर पर संचालित करने का कोई हक होता है और न ही इंटरनेट सेवाएं रोकने का कोई स्विच ही होता है। प्रशासन इंटरनेट की केबल काटकर भी किसी इलाके में इंटरनेट शटडाउन नहीं करा सकता, क्योंकि अब तो ज्यादातर इंटरनेट सेवाएं मोबाइल हो गई हैं। असल में इसका तरीका इंटरनेट सेवा प्रदाताओं यानी सर्विस प्रोवाइडर्स को किसी खास इलाके में सेवाएं रोकने के लिए निर्देश देना है। ये सर्विस प्रोवाइडर कंपनियां यदि सरकारी हैं तो उन्हें अपने निर्देश के मुताबिक काम करने को कहना बेहद आसान होता है, क्योंकि ये सरकारी निर्देशों की किसी भी सूरत में अवहेलना नहीं कर सकती हैं। लेकिन निजी सर्विस प्रोवाइडर कंपनियां भी इंटरनेट शटडाउन के सरकारी निर्देशों को मानने से इन्कार नहीं कर सकती हैं।

इसका कारण यह है कि निजी कंपनियों को इंटरनेट चलाने का लाइसेंस सरकार ही देती है। ये सर्विस प्रोवाइडर सरकार का संबंधित आदेश मिलते ही किसी खास इलाके को इंटरनेट से जोड़ने वाली डिवाइसों का संचालन बंद कर देते हैं, जिससे उस इलाके में नेट सेवाएं ठप पड़ जाती हैं। इसके अलावा सरकार चुनिंदा वेबसाइटों पर भी बैन लगा सकती है। अतीत में सरकार के निर्देश पर सैकड़ों पोर्न वेबसाइटों को बंद किया गया है। यह भी उल्लेखनीय है कि पहले इंडियन टेलीग्राफ एक्ट, 1885 और धारा-144 के तहत सूचना के प्रचार-प्रसार सहित इंटरनेट शटडाउन का अधिकार सरकार और प्रशासन को दिया गया था, लेकिन टेंपररी सस्पेंशन ऑफ टेलीकॉम सर्विसेज (पब्लिक इमर्जेंसी या पब्लिक सेफ्टी) रूल्स 2017 अस्तित्व में आने के बाद इस पाबंदी का फैसला इसी प्रावधान के तहत लिया जाने लगा है।

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