हम यह कौन सा पाठ पढ़ा रहे हैं ? | EDITORIAL by Rakesh Dubey

नई दिल्ली। असम से मुंबई तक और दिल्ली से केरल तक विद्यार्थियों का प्रदर्शन अब विश्वविद्यालयों के दीक्षांत समारोह तक पहुँच गया है | दीक्षांत समारोहों में जो घट रहा है,उसे कही से भी उचित नहीं कहा जा सकता है | पांडिचेरी और जाधवपुर विश्वविद्यालयों में घटी घटनाये देश के वर्तमान  माहौल का प्रतिबिम्ब है | एक में छात्रा को रोका गया दूसरी में छात्रा ने उपाधि प्राप्त करने के बाद नागरिकता कानून को मंच पर फाड़ डाला | घटनाएँ और परिणाम अलग है पर आक्रोश का अपना मूल्य होता है | भारत में छात्रों के दृष्टिकोण ने सत्ता बदली हैं, इसका भी इतिहास है |

वैसे भी छात्रों के दृष्टिकोण को अनसुना करने का मतलब जनतांत्रिक मूल्यों-परंपराओं को अस्वीकारना होता है,यह सही है कि संसद ने बहुमत से कानून पारित किया है, लेकिन एक ‘लोकप्रियता का बहुमत’ भी होता है| सर्वमान्य तथ्य है कि जनतंत्र में विरोध का विशेष महत्व होता है। विरोध छोटा या कमज़ोर हो, तब भी उसकी अवहेलना नहीं होनी चाहिए और न ही उसे नकारा जाना चाहिए। जिस तरह का वातावरण आज देश में बन रहा है, उसे मात्र राजनीतिक उद्देश्यों से प्रेरित मानना गलत नहीं है, तो उसे राजनीति बताकर सत्तारूढ़ पक्ष का अपने बहुमत की दुहाई देना भी सही नहीं है,  सरकार इस  सवाल का जवाब वह अब तक युक्ति-युक्त ढंग से नहीं दे पायी  कि यह कानून सर्व स्वीकार्य क्यों नहीं है? अपेक्षा थी कि सरकार, विशेषकर ‘सबका साथ, सबका विकास’ की बात कहने वाले प्रधानमंत्री, इस संदर्भ में पूरे देश को अपनी बात समझाने का ठोस प्रयास करते ।

इसके विपरीत जब प्रधानमंत्री यह कहते हैं कि कानून का विरोध करने वालों के कपड़ों से ही पता चल जाता है कि वे देश भर में हो रहे विरोध को राजनीति के चश्मे से ही देख रहे हैं। जनतंत्र में विरोध का सम्मान किया जाता है, विरोध के कारणों को समझने की कोशिश की जाती है, उनके निवारण के उपाय खोजे जाते हैं। दुर्भाग्य से आज ऐसा होता नहीं दिख रहा। इस सारे संदर्भ में राष्ट्रवाद की दुहाई देना गलत तर्क द्वारा अपने पक्ष को सही सिद्ध करने की कोशिश ही कहा जायेगा।

देश के पहले गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल याद आते हैं । संविधान सभा में नागरिकता के संदर्भ में उन्होंने कहा था, “हम संकुचित राष्ट्रवाद के नजरिये को स्वीकार नहीं कर सकते।“ संकुचित राष्ट्रवाद से उनका मतलब वह राष्ट्रवाद था, जिसका आधार धर्म या जाति हो। समय की मांग है हिंदू या मुसलमान या ईसाई आदि होने पर गर्व करने के स्थान हमें संविधान में विश्वास करने वाले नागरिक के नाते भारतीय होने पर गर्व करना चाहिए और अब यही हमारी सही पहचान है। तर्क के लिए सोंचे कि मेरे हिंदू या मुसलमान होने में मेरा क्या योगदान है?  यह पहचान तो मुझे धर्म-विशेष वाले परिवार में पैदा होने से मिली है। वस्तुत: मैं पहले इन्सान हूँ |

जब सरदार पटेल ने नागरिकता का विस्तृत दृष्टिकोण अपनाने की बात कही थी तो वे वस्तुतः इसी अच्छा इनसान वाली बात को समझा रहे थे। हमें अच्छा इंसान बनना है और न्यायपूर्ण समाज भी बनाना है। ऐसा समाज कानून के समक्ष समानता के आधार पर ही बन सकता है।सारे नागरिकों के लिए एक समान कानून | जिसमें धर्म या जाति या वर्ण-वर्ग के आधार पर किसी प्रकार का भेद-भाव नहीं हो । समाज को इस दिशा में ले जाने का मार्गदर्शन यदि हमने युवाओं को दिया होता तो ये घटनाएँ नहीं होती |

पहली -पांडिचेरी विश्वविद्यालय  की स्वर्ण पदक विजेता छात्रा रबीहा अब्दुरहीम को दीक्षांत समारोह में शामिल होने से रोका गया, जिसमें राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद मुख्य अतिथि थे| केरल की निवासी रबीहा ने मास कम्युनिकेशन से मास्टर डिग्री ली है |छात्रा ने दावा किया कि दीक्षांत समारोह शुरू होने से पहले उसे एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने ऑडिटोरियम छोड़ने के लिए कहा था. राष्ट्रपति के जाने के बाद उन्हें तब ऑडिटोरियम में जाने की अनुमति दी गई, जब समारोह में निवर्तमान स्नातकों को स्वर्ण पदक और प्रमाण पत्र दिया जा रहा था. रबीहा अब्दुरहीम ने कहा कि वह असली वजह नहीं जान सकी कि पुलिस अधिकारी द्वारा ऑडिटोरियम छोड़ने के लिए क्यों कहा गया? इसकी जाँच होनी चहिये | राष्ट्रपति के कैंपस छोड़ने के बाद दीक्षांत समारोह जारी रहा और विश्वविद्यालय के एक अधिकारी ने छात्रों को प्रमाणपत्र और पदक सौंपे|

दूसरी -प.बंगाल की जाधवपुर यूनिवर्सिटी के दीक्षांत समारोह में एमए की डिग्री लेने के बाद एक छात्रा ने नागरिकता कानून (सीएए) की प्रति मंच पर  फाड़ दी। इंटरनेशनल रिलेशन की छात्रा देबोस्मिता चौधरी ने कहा- यह मेरा विरोध करने का तरीका है। विरोध के इस तरीके को क्या कहेंगे ? आन्दोलन या .....!
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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